गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

फिजूलखर्ची का कोई अंत नहीं

नर-नारी श्रम न करने में बड़प्पन अनुभव करने लगे  


प्राचीन काल में प्रत्येक साधक को प्रारम्भ में कुछ यम - नियम का पालन करना होता था। इनके अंतर्गत सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य , अस्तेय, अपरिग्रह आदि का पालन करना अनिवार्य था। परन्तु आज की स्थिति में इनमें कुछ परिर्तन -सा आवश्यक प्रतीत होता है। यदि परिवर्तन नहीं हुवा तो सैद्धांतिक अधिक और व्यावहारिक कम ही रह जायेंगे। एकरूप से अव्यावहारिक ही हो जायेंगे। आज की स्थिति और परिस्थितियों में यह सम्भव भी दृष्टिगत नहीं होता। अब तो व्यावहारिक पंचशीलों का का परिपालन आदतों में हो सके तो भी काम चल जाएगाश्रमशीलता, मितव्ययता, शिष्टता , सुव्यवस्था और सहकारिता के पंचशील हमारे क्रिया-कलाप में पूरी तरह घुल-मिल सकें तो समझना चाहिए कि प्राचीनकाल की तप-साधना के समतुल्य साधनात्मक साहस बन पड़ा।

श्रमशीलता --उपलब्ध शक्ति का एक-चौथाई भाग भी उत्पादक श्रम में नियोजित नहीं हो पाता। निठल्लेपन में शारीरिक व मानसिक असमर्थता पनपती है। आर्थिक और दूसरी सभी प्रगतियों का द्वार बंद हो जाता है। श्रम के बिना शरीर निरोग एवं सशक्त भी नहीं रह सकेगा। श्रम के बिना उत्पादन भी सम्भव नहीं है। समाज में विसंगति इसी कारण पनपती रहीं हैं कि नर-नारी श्रम न करने में बड़प्पन अनुभव करने लगे। कामचोरी , कम से कम श्रम करके अधिक से अधिक लाभ पाने की प्रवृत्तियां समाज को अपंग जैसा बनाए दे रही हैं। इसी भयंकरता को समझते हुवे समय को तत्परता और तन्मयता भरे परिश्रम के साथ जोड़कर दिनचर्या बनाई जाए तो प्रतीत होगा कि उपलब्ध समय एवं साधनों में ही प्रगतिशीलता के साथ जुडे हुवे अनेकानेक सतपरिणाम उपलब्ध होते चले जाते हैं।


मितव्ययता-- अपव्यय आज का दूसरा अभिशाप है। दुर्व्यसनों में, फैशन तथा सजधज जैसे आडम्बरों इतना समय और पैसा खर्च होता है कि उसे बचा लेने पर अपने और दूसरों के अनेक प्रयोजन सध सकते हैं। फिजूलखर्ची का कोई अंत नहीं है। साधारण श्रम , कौशल के लिए सम्भव ही नहीं हो पाता। तब बेईमानी एवं बदमाशी का आश्रय लिए बिना काम ही नहीं चलता। इस अमीरी के प्रदर्शन कभी किसी को सम्मान मिलता रहा हो , पर अब तो इसके कारण ईर्ष्या ही उपजती है। उसके फलस्वरूप उसकी नकल करने या फिर नीचा दिखाने की प्रतिक्रिया दीख पड़ती है। सादा जीवन उच्च विचार वाली उत्कृष्टता का तो एक प्रकार से समापन ही होता जाता है। उदारता को चरितार्थ करने का अवसर तो तब मिले , जब अपव्यय से कुछ बचे


शिष्टता ---शिष्टता सभ्यता की आधारशिला है। दूसरों के असम्मान और अपने अहंकार के संयोग से ही ऐसी उद्दंडता उभरती है। उसे अपनाने वालों की छवि ही धूमिल होती है। इसके स्थान पर विनम्रता एवं सभ्यता का परिचय देना ही सौम्यता का प्रमुख स्वरूप है। यह व्यवहार बड़ों के साथ ही नहीं , छोटों के साथ भी उतनी ही तत्परता पूर्वक किया जाना चाहिए। यह उक्ति बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि ' शालीनता बिना मोल मिलती है , परन्तु उससे सबकुछ खरीदा जा सकता है।' शालीनता का जिन्हें अभ्यास है , उनके परिवार में कभी कलह नहीं होती , सौमनस्य एवं सौहार्द का वातावरण सर्वदा बना रहता है। शालीन व्यक्ति के मित्र-सहयोगी अनायास ही बड़ते चले जाते हैं, जबकि अशिष्ट व्यक्ति अपने को भी पराया कर डालता है। जीवन की सफलता में शालीनता का असाधारण योगदान रहता है।

सुव्यवस्था-- सुव्यवस्था का तात्पर्य है अपने समय , श्रम, मनोयोग , जीवन-क्रम , शरीर-सामर्थ्य आदि सभी सम्बद्ध क्रिया-कलापों का संयोजन एवं सुनियोजन। उन्हें इस प्रकार संभाल-सम्भाल सुनियोजित रखा जाए कि उसको अस्त-व्यस्तता से बचाया जा सके और अधिकाधिक समय तक उनका समुचित लाभ उठाया जा सके। यह प्रक्रिया स्वभाव में सुव्यवस्था की दृष्टि बनी रहने पर ही हो सकती है। लोक-व्यवहार का यह सबसे बड़ा गुण है। इसे सम्भालना , सदुपयोग करना एवं सुनियोजित करना आ गया तो समझना चाहिए कि उसे गुणवानों में गिना जाएगा; प्रभाव सर्वत्र ही होगा। सुनियोजन ही सौन्दर्य है , उसी को कला-कौशल भी कहना चाहिए। मैनेजर , गवर्नर ,सुपरवाईजर जैसे प्रतिष्ठित पदों का श्रेय उन्हीं को मिलता है, जो न स्वयं को अपने परिवेश को भी सुव्यवस्था में चलने तथा अनुशासन में रहने के लिए सहमत करते हैं। प्रगति का प्रमुख आधार यही है।

सहकारिता -- सहकारिता अर्थात मिलजुलकर काम करना , आदान-प्रदान का उपक्रम बनाये रखना। परिवार में , व्यापार में तथा लोक-व्यवहार में सामंजस्य बनाये रह सकना तभी बन पड़ता है , जब उदारता भरी सहकारिता को अपने सभी क्रिया-कलापों में सुनियोजित रखा जा सके। जो एकाकीपन से ग्रस्त हैं, उन्हें असामाजिक एवं उपेक्षित रहना पड़ता है और नीरसता तथा निराशा के बीच ही उनका दिन व्यतीत होता है। स्नेह,सहयोग व सम्मान पाने का अवसर उन्हें मिलता ही नहीं , लो संकीर्ण स्वार्थपरता से जकड़े एवं निष्ठुर प्रकृति के होते हैं। बड़े कार्य संयुक्त शक्ति से ही सम्पन्न होते हैं, देव-शक्तियों के संयोग से दुर्गा के प्रादुर्भाव की कथा सर्वविदित है। समुद्र-मंथन भी देवासुरों के सम्मिलित प्रयास से ही सम्भव हो पाया था। संकीर्ण स्वार्थपरता के स्थान पर उदार सहकारिता की प्रवृत्ति जगाने से , वैसा अभ्यास बनाने से ही संघ-शक्ति जागृत होती है। योग्य कार्यकर्त्ता होने पर भी सहकारिता का अभाव में न कोई संस्था पनप सकती है और न कोई व्यवसाय प्रगति कर सकता है।


सद्गुणों को अपने दृष्टिकोण , स्वभाव एवं अभ्यास में उतारने का सबसे अच्छा अवसर परिवार-परिवेश के बीच मिलता है। परिवार-संस्था ही नर-रत्नों की खान है। जो परिवार में सद्गुणों का अभ्यास करते हैं , उनके लिए यह किंचित भी कठिन नहीं रहता कि लोक-व्यवहार में पग-पग पर शालीनता का परिचय दें और बदलें में उत्साह भरी उपलब्धियों का पूरा-पूरा लाभ सहज ही प्राप्त करते रहें। इसप्रकार पंचशील का पालन कर स्वप्रबंधन, आत्म-प्रबन्धन और समाज-प्रबन्धन का पाठ सीख कर जीवन में सफल हुवा जा सकता है। ये पंचशील, यम-नियम का ही आधुनिक संस्कारित रूप हैं और वर्तमान युग में इन्हें समझा एवं अपनाया जा सकता है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें