गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

बाबूजी एक ऋषि थे , अंत समय तक कर्मशील रहे

वर्तमान जीवन मनुष्य द्वारा अतीत जीवन या जीवनों में किए गए कर्मों या व्यवहार का फल ही है 





आर्य - जीवन सुगठित और विकासोन्मुख है। कर्ममय जीवन की ही कामना ऋषियों - मुनियों ने की है। शिक्षा के प्रभाव से जीवन पूर्णतया परिपक्व हो जाता है। बाबूजी एक ऋषि थे , अंत समय तक कर्मशील रहे। आर्य ऋषि सदा - सर्वदा इस बात का ध्यान करते थे कि परम्परा बने , जो आने वाली सन्तान को भी निरंतर प्रकाश दे

 शतपथ ब्राह्मण का यह अंश " इदं में अयं वीर्यपुत्र: अनुसंतंवदिती " अर्थात यह मेरा पौरुष- कर्म मेरा पुत्र भी आगे चलाये वस्तुत: मनुष्य अपने कर्मों एवं आचरणों से अपना भविष्य बनता है। बृह्दारण्यक उपनिषद में कहा गया है -- ' जो जैसा आचरण करता है , वह अगला जन्म वैसा ही पता है। अच्छे कर्मों वाला अच्चा जन्म पायेगा , दुष्कर्मों वाला बुरा जन्म पायेगा।



 मानव पुण्य कर्मों से पवित्र होता है। मनुष्य काममय है , उसकी जैसी कामना होगी , वैसी ही उसकी इच्छा शक्ति होगी। उसकी जैसी इच्छा शक्ति होगी , वैसा ही उसका कर्म होगा और जो कुछ कर्म वह करता है , वैसा ही वह बनता है और वैसा ही वह फल प्राप्त करता है। जिस किसी से मनुष्य का मन एवं सूक्ष्म देह संलग्न रहता है , उसी के पास अपने कर्मों के फलों साथ वह जाता है और जो कुछ कर्म वह इस लोक में करता है , उसका फल प्राप्त करने के उपरांत वह पुन: उस लोक से कर्मलोक में आता है। यह बात उस व्यक्ति के लिए है , जो काममय है। ' 
सारांशत: इस जीवन में किए गये कर्म एवं आचरण मनुष्य के भावी जीवन का निर्माण करने वाले होते हैं और वर्तमान जीवन मनुष्य द्वारा अतीत जीवन या जीवनों में किए गए कर्मों या व्यवहार का फल ही है

 यज्ञ के उपरांत भोजनालय में आश्रम की ओर से स्वादिष्ट एवं सात्विक भोजन का प्रबंध सभी सब के लिए था। उसे ऐसा प्रतीत होता हुवा कि वह आश्रम में नहीं अपितु आनंद -लोक में है और आनंद होता क्या है? प्रेम पूर्वक मिला हुवा सात्विक भोजन स्वादु , स्निग्ध , स्थिर गुणप्रद और मनोहर होता है। " आयु: सत्व बलारोग्य सुख प्रीति: विवर्द्धना: " अर्थात ऐसा ही भोजन आयु ,सात्विक बुद्धि , आरोग्य , मानसिक सुख , मन और इन्द्रियों को प्रसन्नता देने वाला होता है। वहां सभा में उपस्थित अनेक लोग थे , उनमें से एक ने कहा -- "डाक्टर साहब ने जितना लिखा है , उतना एक व्यक्ति एक जन्म तो लिख ही नहीं सकता । यह तो उनकी ही कठोर तपस्या थी , जो उन्होंने अपनी साधना के बल पर इतने विशाल साहित्य का सृजन किया। उनके सृजन से साहित्य एवं आर्य जगत सदैव उनका ऋणी रहेगा " शरीर का प्रारंभ ऋतुदान में और अंत श्मशान में होता है ।

 मृतक जीव का सम्बन्ध पूर्व सम्बन्धियों के साथ कुछ भी नहीं रहता और वह अपने कर्म के अनुसार जन्म पाता है । मृत्यु के बाद जीव यम -आलय को जाता है । यम - आलय और कुछ भी नहीं मात्र अंतरिक्ष है । यहाँ ऋतुओं का नाम यम है । यहाँ अग्नि , वायु , विद्युत् , सूर्य और परमेश्वर का नाम यम है। वस्तुत: ओमित्येतदक्षरमिदंसर्व:' अर्थात ॐ यह अक्षर ही सबकुछ है। यह जो भूत ,भविष्यत् और वर्तमान है वह सब इसी की व्याख्या है । इसलिए सब ओंकार ही है । प्रणव ही ब्रह्म की शब्दमयी अभिव्यक्ति है । अग्नि - संस्कार से मृत शरीर का पार्थिक तत्त्व कण - कण जल कर रूपांतर ग्रहण कर लेता है । मृत आमा का सम्बन्ध पूर्व शरीर से विच्छिन्न हो जाता है । 




पञ्च कर्मेन्द्रिय , पञ्च ज्ञानेन्द्रिय , पञ्च प्राण- वायु , मन और बुद्धि इन सत्रह वस्तुओं का सूक्ष्म शरीर लेकर जीव स्वकर्मानुसार स्थूल शरीर में प्रवेश करता है । उसके पाँचों तत्त्व -- भू, जल , अग्नि , वायु और आकाश अपने- अपने मूल तत्त्वों में लीन हो जाते हैं । यजुर्वेद के एक मंत्र को एक विद्वान् महर्षि दयानंद के शब्दों में उद्धृत करते हुवे कहते हैं --" हे मनुष्यों ! जब ये जीव शरीर छोड़ते हैं , तब वे सूर्य- प्रकाश आदि पदार्थों को प्राप्त कर कुछ काल भ्रमण कर अपने कर्मों के अनुकूल गर्भाशय को प्राप्त कर ही शरीर को धारण करने के उपरांत ही उत्पन्न होते हैं , तभी पुण्य- पाप कर्म से सुख- दुखमय कर्मों को भोगते हैं। " वे उसके अर्थ को स्पष्ट करते हुवे कहते हैं -- इस जीव को शरीर के छोड़ने के पहले दिन सविता , दूसरे दिन अग्नि , तीसरे दिन वायु , चौथे दिन आदित्य , पांचवे दिन चंद्रमा , छठे दिन ऋतु , सातवें दिन मरुत , आठवें दिन बृहस्पति , नौवें दिन मित्र , दशवें दिन वरुण , ग्यारहवें दिन इन्द्र तथा बारहवें दिन दिव्य उत्तम गुण प्राप्त होते हैं । इस पर मत- भेद भी उपलब्ध होता है। 




पर मैं तो बाबूजी के पुनर्जन्म के विषय में सोचता नहीं हूँ ; मैं तो उन्हें पूर्णकाम मानता हूँ । जो व्यक्ति काम-रहित है , निष्काम है , जिसके काम शांत हो गए हैं , जो स्वयं आत्म - काम स्वयं अपनी इच्छा है, उसके प्राण कहीं ओर नहीं जाते । वह स्वयं ब्रह्म होने के कारण ब्रह्न- लीन हो जाता है। जब मनुष्य के ह्रदय में स्थित सभी काम दूर हो जाते हैं , तो वह जो मर्त्य है , अमृत हो जाता है, यही इसी शरीर में ब्रह्म की प्राप्ति कर लेता है। 

यद्यपि ब्रह्म केवल एक है , किन्तु परं- ब्रह्म और शब्द- ब्रह्म दो रूपों में उसकी कल्पना की गयी है और यह कहा गया है कि बिना शब्द ब्रह्म कों जाने परं- ब्रह्म को जानना असम्भव है। बाबूजी ने जितना शब्द - ब्रह्म को जाना था , उतना कौन जा सकता है ? सुबंत यथा नाम तथा गुण थे। शब्दों के कुशल ज्ञाता और उसके भेद को जानने वाले थे सुबंत।

 बाबूजी जीवन - पर्यंत धर्म के वास्तविक रूप की पहचान बने रहे। अभुदय और नि:श्रेयस सिद्धि को धर्म का प्रतीक मानकर वे सदैव अपने ज्ञान से दीप के समान आलोकित रहे तथा स्वप्रकाश को जन- कल्याण के लिए विकीर्ण करते रहे। वह दिव्य- पुंज स्वयं तिल- तिल जल- जलकर जगत को आलोकित करता रहा। आत्म - कल्याण से पूर्व जन- कल्याण की महती भावना सतत सम्बल बनी रही। उन्होंने शब्द- ब्रह्म को पहचान कर परं - ब्रह्म को निस्संदेह प्राप्त कर लिया था। यह उक्ति उनके लिए सार्थक एवं पूर्ण प्रतीत होती है -- "शब्दब्रह्मणिनिष्णात: परंब्रह्माधिगच्छति '' ।**********************************




Dr. Ganga Ram Garg has several works to his credit including the Concise Oxfrord Companion to Hindi Literature, published by the Oxford University Press, 1963; An Encyclopaedia of Indian Literature (Sanskrit, Pali Prakrit, Apabharmsa, 1982), World Perspectives on Swami Dayananda Saraswati (1984); Encyclopaedia of World Hindi Literature (1986) and International Encyclopaedia of Indian Literature (1986), of which eight volumes have appeared so far. Dr. Garg monumental work, however, is ENCYCLOPAEDIA OF THE HINDU WORD, which is eventually to be covered in 40 volumes. Dr. Garg has also provided a 60 page Introduction to The Sacred Books & Early Literature of the East (14 Vols.) edited by Charles F. Horne. Holding a doctorate from the Panjab University, Dr. Garg has been associated with Gurukula Kangri Vishwavidyalay, Hardwar for some of 40 years where he worked as Professor, Registrar and Vice-Chancellor and was also its Senator. For his work on Dayananda, he was honoured by the Dayanaanda Nirnand Samiti, Ajmer. His works carry Forewords by eminent scholars, e.g. Professor R. Stuart McGregor, University of Cambridge, Professor Juan Miguel de Mora, Mexico and Professor Kenneth W. Jones, America. Dr. Gargs books have been appreciatively reviewed in Hindustan, Tribune, Hindu Asia week, Choice, U.S.A. etc. Born at Kohand (Panipat), some 18 works of his have been published; more, however are yet to come.

1 टिप्पणी:

  1. garg brahman samaj ke gorav ratna shri dr.gangaram saheb ko sadar naman.adarniy shri vidhyalankarji garg saheb ka thanks for infarmation .
    regards prahalad kumar sharma [garg brahman mandsaur madhypradesh 09827502907]

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