मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

समता -भाव से ही दिव्य आनंद

 जीवन के लिए जितना महत्त्व श्वास का है, उतना ही महत्त्व समाज में विश्वास का है। 



अपने ही भीतर छिपे हुवे आनंद के अक्षय-कोष से अनजान व्यक्ति अपने कों बाहर से भरना चाहता है। पर जितना वह बाहर से अपने को भरता है वह उतना ही भीतर से रीतता जाता है। सत्य-निष्ठ होने के लिए स्वयं मे विश्वास होना अत्यंत अपेक्षित है। स्वयं के प्रति विश्वस्त व्यक्ति ही दूसरों के प्रति विश्वस्त रह सकता है। संदेहशील व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है।



 जीवन के लिए जितना महत्त्व श्वास का है, उतना ही महत्त्व समाज में विश्वास का है। साथ ही आनंद के लिए संतुष्टि का होना भी आवश्यक है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है---" देख परायी चूपड़ी मत ललचावे जीव । रूखा - सूखा खाय के ठंडा पानी पीव ॥ " यथा---"छोड़कर नि :श्वास कहता है नदी का यह किनारा , उस किनारे पर जमा है जगत का हर्ष सारा । वह किनारा किन्तु लम्बी साँस लेकर कह रहा , हाय! हर एक सुख उस पार ही क्यों बह रहा ॥ " असंतुष्ट मानस की बगिया में आनंद के फूल कभी भी नहीं खिल सकते । 



उदासीन भाव की विरक्ति ही अंतर्दर्शन का मूल और आनंद का स्रोत है। वेदना दो प्रकार की होती है--- शारीरिक और मानसिक । शारीरिक वेदना प्रगति में बाधक बन सकती है, पर घातक नहीं। घातक बनती है मानसिक वेदना । अनुकूल -प्रतिकूल स्थितियां , उतार - चड़ाव और घुमाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आते हैं। वह जरा सी अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में दुखी हो उठता है।


 दोनों स्थितियों में मानसिक - संतुलन बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है। वस्तुत: सुख, शांति और आनंद को पाने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं के भीतर है। शांति किसी बाहरी साम्राज्य को जीतने से नहीं , अपितु आत्म - साम्राज्य को जीतने से प्राप्त होती है । सुख और दुःख का कारण व्यक्ति स्वयं होता है। समता के भाव को विकसित करना चाहिए , इससे व्यक्ति राग- द्वेष से रहित हो जाता है। समता भाव स्वत: प्रसूत हो उठता है।



 कोई भी व्यक्ति यदि अशांत होता है तो वह अपने ही चिंतन और गलत कार्यों से होता है । जिसकी दृष्टि समता से परिपूर्ण हो जाती है , वह कभी भी पाप की ओर अग्रसर नहीं होता। सत्यत: समता एक ऐसा लंगर है , जो हर परिस्थिति में हमारे जीवन के जहाज को संतुलित और नियंत्रित कर सकता है । समता -भाव से ही दिव्य आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। तथा इसके बाद आनंद ही आनंद रह जाता है।*****




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें