शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

प्राणों को साध लिया जाये तो मन आदि भी निश्चल

प्राणायाम अष्टांग योग का चतुर्थ भाग  



प्राणायाम अष्टांग योग का चतुर्थ भाग है। प्राणायाम साधना भी उस विराट के साथ जुड़ने की प्रक्रिया है। शरीर में प्राणों का बड़ा महत्त्व है प्राणों को आत्मा से गति मिलती है एक बार प्राण आत्मा का स्पर्श करते हैं , तो दूसरी बार ह्रदय कातो दिल की धड़कन चलती है स्वचालित यंत्र के समान प्राण अपने आप गति करते रहते हैं कभी - कभी तो पता ही नहीं चलता कि प्राण चल रहें हैं , पर इनमें सूक्ष्म रूप से गति बनी रहती है सारा खेल प्राणों का है। साँस है तो आस है। अत: सब इन्द्रियों में प्राण ही प्रमुख है।

 उपनिषदों एक मधुर कथा आती है। एकबार शरीर में रहने वाली इन्द्रियों में झगडा हो गया। सभी इन्द्रियां अपने को बड़ा कहती थीं। आँखों ने कहा की यदि वे नहीं देखेंगी तो शरीर का काम कैसे चलेगा। मनष्य ठीक से चल भी नहीं सकेगा। हाथों ने कहा कि यदि वे किसी चीज को न पकड़ें तो कोई व्यक्ति भोजन कैसे करेगा? उसके लिए मक्खी - मच्छर तक उड़ना कठिन हो जायेगा। नाक ने कहा यदि वह नहीं सूंघे तो सुगंध- दुर्गन्ध का पता कसे चलेगा ? पैरों ने कहा -- यदि वे नहीं चलें तो व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर कैसे जाएगा ? वहीँ का वहीँ बैठा रह जाएगा। इस प्रकार सभी इन्द्रियां तू-तू मैं-मैं करने लगीं , कोई अपने को छोटा मानने को तैयार नहीं थी। अब कौन बड़ा और कौन छोटा है , यह निर्णय नहीं हो पा रहा था। तब सब इन्द्रियां ब्रह्मा जी के पास गयीं। ब्रह्मा जी ने पूछा कि तुम क्यों झगडती हो ? इन्द्रियों ने उत्तर दिया कि वे यह निर्णय नहीं कर पा रहीं हैं कि उनमें कौन बड़ा है , इसलिए विवाद हो रहा है। आप पूज्य हैं , इस विषय में आप ही निर्णय कर दीजिये।


 ब्रह्माजी ने कहा --- ' आप सभी इन्द्रियां बारी - बारी से अपना प्रभाव दिखाइए। एक- एक करके शरीर से बाहर निकलिये , तभी निर्णय हो जायेगा कि आप में से कौन बड़ा है? ' सबसे पहले नेत्र बाहर निकले , तब भी शरीर का काम चलता रहा। क्योंकि नेत्र- हीन व्यक्ति भी तो जीते हैं। फिर श्रवण इन्द्रिय बाहर निकली , तब भी काम चलता रहा, बहरें भी तो जीते हैं। ऐसे प्रत्येक इन्द्रिय बारी-बारी से बाहर निकली , शरीर की सभी क्रियाएं चलती रहीं , कोई अंतर नहीं पड़ा। फिर प्राणों की बारी आई। जैसे ही प्राण शरीर से बाहर निकले तो सभी इन्द्रियां छटपटाने लगीं। तब सभी इन्द्रियों ने स्वीकार किया कि प्राण ही श्रेष्ठ हैं।

 अत: प्राणों के साथ शरीर का गहरा सम्बन्ध है। भीतर- बाहर का स्पंदन और प्रत्येक कर्म प्राणों के चलते ही पूर्ण होता है। यदि कोई प्राणों पर नियंत्रण कर ले तो जन्ममृत्यु के चक्कर से मुक्त हो सकता है। अत: प्राणायाम परम- पिता परमात्मा से संयुक्त होने की एक विधि है।


आकाश का अर्थ खाली जगह होता है-- " अवकाशदमाकाशम " जो चलने - फिरने को अवकाश देता है , खाली जगह देता है। जब आप सो कर उठते हैं , तो पेट खाली होना चाहिए। खाली पेट आप प्राणायाम कीजिये , क्योंकि आकाश के बाद वायु का नाम आता है। प्राणायाम के उपरांत दूध या अग्नि में पके फल लीजिये। यही वायोरग्नि का तात्पर्य है। अर्थात प्राणायाम के बाद फल- दूध आदि हल्का सात्विक आहार लेना चाहिए। अद्भ्य: पृथ्वी अर्थात दूध - फल के उपरांत दो- तीन घंटे बाद ठोस भोजन कर लेना चाहिए। इस प्रकार सात्विक भोजन का सेवन करते हुवे यदि प्राणायाम करें तो योग सिद्ध होगा।

उपनिषद में एक दिन और रात में मनुष्य के प्राणों की संख्या २१६०० बताई गयी है। घडी सामने रख कर आप प्राणों की गिनती कर सकते हैं। किन्तु प्रत्येक साँस की दो गतियाँ होती हैं , एक बार साँस बाहर से अन्दर आता है और एक बार साँस अन्दर से बाहर जाता है। अत: २१६०० को दुगुना कर दया जाये तो ४३२०० साँस होती हैं। साँस परमात्मा ने नपे- तुले दिए हैं। भोग भोगते समय सांसों की गति तीव्र हो जाती है , अत: भोगी पुरुष जल्दी संसार से विदा हो जाते हैं।

प्राणों का संचार होने से ही शरीर , इन्द्रियां और मन चंचल होते हैं। यदि प्राणों को साध लिया जाये तो मन। इन्द्रियां आदि भी निश्चल हो जाते हैं। ' योग वासिष्ठ ' में श्री राम को उपदेश देते हुवे महर्षि वसिष्ठ कहते हैं---" चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् " अर्थात राम ! यदि भीतर वायु चंचल हो तो मन चंचल होता है। वायु निश्चल हो जाये तो मन भी निश्चल हो जाता है।*******************************


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