तप से मन की कालिमा दूर होती है
तप से मन की कालिमा दूर होती है--- ' तपसां कल्मषं हन्ति '। स्वयं ईश्वर कहते हैं -- ' तपो में हृदयं साक्षात् ' तप तो साक्षात् मेरा ह्रदय है। मन और इन्द्रियों के संयम रूप धर्म-पालन करने के लिए कष्ट सहने का और तितिक्षा एवं व्रत आदि का नाम तप है।
पतंजलि ने संतोष के बाद तप का नाम लिया, संतोष आने से पहले भी तप कर सकते थे । पर यदि बिना संतोष के तप करेंगे तो वह शांतिदायक n होकर , तपने वाला होगा। यदि कामना-पूर्ति के लिए तप किया जाता है , तो वह तप तपाने वाला होगा। तपस्वी को मृत्यु के सिर पर पाँव रख कर परमात्मा का दर्शन करना है। उसके मन में किसी प्रकार का भी भय नहीं होना चाहिए।
तप का अर्थ है -- सहजता और सहज जीवन का अभ्यास। जितना सहज जीवन होता है , उतना ही ज्यादा आनंद होता है। इसके लिए अधिक वस्तुएं नहीं जुटानी पड़तीं। यदि आप परम सुखी और आनंदित रहना चाहते हैं, तो अपने को तपाइये। तप का अर्थ है जीवन में सहन -शीलता। तपने से ही जीवन में चमक आती है। अपमान को सह लेना , कडवी बात को बर्दाश्त करना , ये सब तप के अंग हैं। तथा ये सभी परमात्मा से मिलने में सहायक होते हैं।
अत: साधना करते समय जो भी कष्ट आते हैं , उन्हें धैर्य पूर्वक सहन करना ही तप है। गर्मी- सर्दी , भूख-प्यास आदि द्वन्द्वों को सहन करने की सामर्थ्य को बढाना ही तप है। जैसे स्वर्ण बिना आग में तपाये शुद्ध नहीं होता और उसी प्रकार यह दुर्गंधी - पूर्ण शरीर भी बिना तप के शुद्ध नहीं होता। तपस्या के द्वारा शरीर के सभी विकार जल जाते हैं। तप - रूपी अग्नि में से निकलने से यह कुंदन बन जाता है। तप से इन्द्रियों की वासना -रूपी मैल जल जाती है। मन की वृत्ति निर्मल हो जाती है। भूख- प्यास सहने से , मौन धारण करने से इन्द्रियों की चंचलता दूर हो जाती है। इसके विपरीत चलने से पतन तो निश्चित ही है। तप को उल्टा करने से पत अर्थात पतन ही होता है। परिणामत: जीवन में गिरावट आ जाती है।
गीता के अनुसार तप के तीन प्रकार हैं--- शारीरिक , वाचिक तथा मानसिक। प्रथम शारीरिक तप है । देवता, ब्राह्मण , गुरु , ज्ञानी- संतों का सम्मान , पूजन तथा उचित रीति से सेवा आदि करना ही शारीरिक तप है। वाचिक तप के अंतर्गत वाणी का तप आता है। निंदा एवं चुगली से रहित वाणी का प्रयोग करना तथा उद्वेग का भाव न आना ही वाचिक तप कहा जाता है। वचन सत्य के साथ प्रिय तथा हितकर भी होना चाहिए। प्रिय से तात्पर्य वह वचन कटुता , रूखापन ,ताना तथा अपमान आदि के भाव से रहित होकर ; मीठा, सरल और शांत होना चाहिए। हित-वचन वही है , जिसके परिणाम सब का हित होता है।
जिसमें हिंसा , द्वेष , ईर्ष्या तथा वैर -विरोध की भावना न हो और वह प्रेम, दया , करुणा व मंगल से परिपूर्ण हो। ऐसा अनुद्वेग कर सत्य प्रिय तथा हितकर वाक्य बोलना वाणी का तप है। विषाद , चिंता, भय, शोक, मोह , व्याकुलता आदि दोषों को त्याग कर मन का शुद्ध होना तथा प्रसन्नता और हर्ष आदि से युक्त होना मानसिक तप है। इसमें मन शांत सरल और शीतल बना रहता है।
तप से मन की कालिमा दूर होती है--- ' तपसां कल्मषं हन्ति '। स्वयं ईश्वर कहते हैं -- ' तपो में हृदयं साक्षात् ' तप तो साक्षात् मेरा ह्रदय है। मन और इन्द्रियों के संयम रूप धर्म-पालन करने के लिए कष्ट सहने का और तितिक्षा एवं व्रत आदि का नाम तप है।
पतंजलि ने संतोष के बाद तप का नाम लिया, संतोष आने से पहले भी तप कर सकते थे । पर यदि बिना संतोष के तप करेंगे तो वह शांतिदायक n होकर , तपने वाला होगा। यदि कामना-पूर्ति के लिए तप किया जाता है , तो वह तप तपाने वाला होगा। तपस्वी को मृत्यु के सिर पर पाँव रख कर परमात्मा का दर्शन करना है। उसके मन में किसी प्रकार का भी भय नहीं होना चाहिए।
तप का अर्थ है -- सहजता और सहज जीवन का अभ्यास। जितना सहज जीवन होता है , उतना ही ज्यादा आनंद होता है। इसके लिए अधिक वस्तुएं नहीं जुटानी पड़तीं। यदि आप परम सुखी और आनंदित रहना चाहते हैं, तो अपने को तपाइये। तप का अर्थ है जीवन में सहन -शीलता। तपने से ही जीवन में चमक आती है। अपमान को सह लेना , कडवी बात को बर्दाश्त करना , ये सब तप के अंग हैं। तथा ये सभी परमात्मा से मिलने में सहायक होते हैं।
अत: साधना करते समय जो भी कष्ट आते हैं , उन्हें धैर्य पूर्वक सहन करना ही तप है। गर्मी- सर्दी , भूख-प्यास आदि द्वन्द्वों को सहन करने की सामर्थ्य को बढाना ही तप है। जैसे स्वर्ण बिना आग में तपाये शुद्ध नहीं होता और उसी प्रकार यह दुर्गंधी - पूर्ण शरीर भी बिना तप के शुद्ध नहीं होता। तपस्या के द्वारा शरीर के सभी विकार जल जाते हैं। तप - रूपी अग्नि में से निकलने से यह कुंदन बन जाता है। तप से इन्द्रियों की वासना -रूपी मैल जल जाती है। मन की वृत्ति निर्मल हो जाती है। भूख- प्यास सहने से , मौन धारण करने से इन्द्रियों की चंचलता दूर हो जाती है। इसके विपरीत चलने से पतन तो निश्चित ही है। तप को उल्टा करने से पत अर्थात पतन ही होता है। परिणामत: जीवन में गिरावट आ जाती है।
गीता के अनुसार तप के तीन प्रकार हैं--- शारीरिक , वाचिक तथा मानसिक। प्रथम शारीरिक तप है । देवता, ब्राह्मण , गुरु , ज्ञानी- संतों का सम्मान , पूजन तथा उचित रीति से सेवा आदि करना ही शारीरिक तप है। वाचिक तप के अंतर्गत वाणी का तप आता है। निंदा एवं चुगली से रहित वाणी का प्रयोग करना तथा उद्वेग का भाव न आना ही वाचिक तप कहा जाता है। वचन सत्य के साथ प्रिय तथा हितकर भी होना चाहिए। प्रिय से तात्पर्य वह वचन कटुता , रूखापन ,ताना तथा अपमान आदि के भाव से रहित होकर ; मीठा, सरल और शांत होना चाहिए। हित-वचन वही है , जिसके परिणाम सब का हित होता है।
जिसमें हिंसा , द्वेष , ईर्ष्या तथा वैर -विरोध की भावना न हो और वह प्रेम, दया , करुणा व मंगल से परिपूर्ण हो। ऐसा अनुद्वेग कर सत्य प्रिय तथा हितकर वाक्य बोलना वाणी का तप है। विषाद , चिंता, भय, शोक, मोह , व्याकुलता आदि दोषों को त्याग कर मन का शुद्ध होना तथा प्रसन्नता और हर्ष आदि से युक्त होना मानसिक तप है। इसमें मन शांत सरल और शीतल बना रहता है।
ये सभी गुण मन के दोषों को दूर करके मन को निर्मल बनाते हैं। पुन: सात्विक , राजस और तामस भेद से तप तीन प्रकार का होता है। सात्विक तप के मूल में कोई कामना नहीं होती तथा श्रद्धा का भाव निहित होता है। जो तप अपने मान , बडाई आदि को लेकर किया जाता है , वह राजस तप कहलाता है। जो दंभ या अहंकार को लेकर अज्ञान युक्त मन से किया जाता है उसे तामस तप कहा जाता है। इसमें लोग काँटों की शय्या पर सोकर , वृक्षों पर उल्टा लटक कर , एक पैर पर खड़ा आदि होकर अनेक प्रकार की क्रिया करते हैं। यह अज्ञानवश तामस तप ही है।
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