शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

आचार्य द्वारा दीक्षांत उपदेश



आचार्य अपने सम्बन्ध में कहते हैं कि ,' हमारे जो सुन्दर चरित्र हैं ,उन्हीं का अनुकरण करना चाहिए अन्य किसी दोष का नहीं  





तैत्तिरीयोपनिषद में कुछ ऐसे वैदिक उपदेश हैं , जिन्हें आचार्य दीक्षांत -संस्कार के समय अपने शिष्य को       देता है। ब्रह्मचर्याश्रम के उपरांत जब शिष्य शिक्षा पूर्ण करके घर जाने को होता है , तब आचार्य शिष्य को विशेष उपदेश देता है। यह दीक्षांत उपदेश अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें मानवोचित गुणों एवं पवित्र भावनाओं का विकास समाहित है। प्रलोभनों और भ्रमों एवं विकारों के तूफानों का सामना शिष्य को तब करना पड़ता है जब उसे अनुभवी आचार्य प्रकाश दिखलाने के लिए उसके आगे- आगे नहीं चलते । वह स्वयं अपना प्रकाश बन कर आत्मदीप के सहारे सारे द्वन्द्वों से उलझता हुवा अंत में वहां पहुँच जाता है ; जहाँ वह अपने को द्वंद्व से परे अनभव करता है , साथ ही वह शांत स्थिति में पहुँच जाता है ।


 दीक्षांत के समय आचार्य जो आदेश देता है ; उन आदेशों पर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि आर्यों ने जीवन में आचार को   महत्त्वपूर्ण स्थान दिया तथा वे आचार के प्रति पूर्णत: समर्पित ।ये तेरह उपदेश एवं आदेश आचारमय जीवन के अंग बन गये ---- ' सत्यं वद , धर्मं चर , स्वाध्यायान्मा प्रमद:, प्रजातन्तु मा व्यवच्छेत्सी: , सत्यान्न प्रमदितव्यम, कुशलान्न प्रमदितव्यम , धर्मान्न प्रमदितव्यम , स्वाध्यायप्रवचनाभ्याम न प्रमदितव्यम , मातृदेवोभव। पितृदेवोभव। , आचार्यदेवोभव , अतिथिदेवोभव , अन्यनवद्यानिकर्माणि , तानिसेवितव्यानि, नो इतराणि ; यान्यस्माकम सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि । '


 इन उपदेशों में सत्य बोलने , धर्म का आचरण करने , स्वाध्याय से प्रमाद न करने , प्रजतान्तु का विच्छेद न करने , सत्य - कुशल - धर्म से प्रमाद न करने , अध्ययन -अध्यापन से प्रमाद न करने , माता - पिता -आचार्य-अतिथि का पूजन करने , निर्दोष कर्म एवं अन्य दोषयुक्त कर्म न करना आदि के साथ आचार्य अपने सम्बन्ध में कहते हैं कि ,' हमारे जो सुन्दर चरित्र हैं ,उन्हीं का अनुकरण करना चाहिए अन्य किसी दोष का नहीं । साथ ही अंत में आचार्य कहते हैं-- एष आदेश:। एष उपदेश:। एष वेदोपनिषत। एतदनुशासनम। एवमुपासितव्यम। एवमु चैतदुपास्यम। ' अर्थात यही आदेश है, यही उपदेश है, यही वेद का रहस्य है, यही ईश्वरादेश है, इसी प्रकार का अनुष्ठान करना एवं अवश्य ही करना चाहिए । 


ये तेरह आदेश अपने-आप में पूर्ण हैं । आर्यत्व का एवं आर्य-जीवन का आचार - संबंधी अन्य कोई दूसरा विलक्षण प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। आचार्य ने यह कह कर कि मेरे गुणों को ही स्वीकार करो , दोषों को नहीं। इससे आचार्य पद की महानता को ही प्रमाणित किया है । साथ ही आचार्य ने सोचने - विचार करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का द्वार खोल कर विवेक और बुद्धि को अग्रसारित किया है ।


 महात्मा बुद्ध ने भी अपनी जीवन -यात्रा के अंत में कहा था कि-- ' आत्म-दीप बन कर विहार करो , आत्मा की शरण लो , अन्य किसी की नहीं । धर्म ही तुम्हारा दीपक है , धर्म ही तुम्हारा शरण -स्थल है , अन्य की शरण मत न लो । ' सर्वस्व समर्पण करके ही सब कुछ प्राप्त किया जाता है । आत्म - समर्पण में बहुत बड़ी शक्ति होती है । सत्य को धारण नहीं किया जा सकता , उसे संग्रहीत नहीं किया जा सकता । सत्य ही क्यों , जो भी देव-दुर्लभ तत्त्व हैं उनको अधिकार में रखना सम्भव नहीं है । इसी लिए जीवन को ही आचार- युक्त बनाने का प्रयास किया गया ।



 यह जीवन की चरम सिद्धि है जो आध्यात्मिक मुक्ति के साथ-साथ जीवन को भी प्रकाश से भर देती है । आर्य जीवन के रहस्य को भलीभांति समझते थे और उन्होंने सदा यही प्रयास किया कि अतीत से प्रेरणा , वर्तमान से उत्साह तथा भविष्य से सत्यपूत आशा प्राप्त कर ऋत और सत्य के दो चक्के से युक्त जीवन - रथ को सदैव गतिशील रखें । जो आने वाले हैं , उनके लिए सुखद वातावरण , विकासात्मक परम्पराएं , पवित्र - निधि और ऊंचा से ऊंचा आदर्श छोड़ जाएँ । परिणामत: वैदिक आचार- व्यवस्था में आचार्य द्वारा दीक्षांत उपदेश भारतीय संस्कृति की अनुपम स्थिति है । इसमें आचार्य का जीवन स्वयं आचार का अनुपम उदाहरण है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें