शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

जिह्वा के द्वारा अन्य सभी इन्द्रियों में नियंत्रण

अग्नि की चिंगारी अग्निमय है पर मूलत: वह अग्नि नहीं है। 



हम में भक्त होने की योग्यता होनी चाहिए। भगवान के प्रिय बनें। स्वयं भगवान् को देखने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ऐसे कार्य करो कि भगवान स्वयं हमें देख लें। हमें अपने आपको योग्य बनाना है। हमारी योग्यता से ही भगवान स्वयं हमारे पास आयेंगे और हमें दर्शन देंगे। यदि कोई भगवान् को देख सकता है तो वह सभी भौतिक कामनाओं से ऊपर होता है। हम भौतिक जगत की अस्थायी परिस्थितियों में सदा असंतुष्ट रहते हैं। सुख अस्थायी है और अस्थायी दशा भी अधिक समय तक नहीं रहेगी। सर्दी, गर्मी और द्वंद्व आदि सभी कुछ आते जाते रहते हैं। परम अवस्था को प्राप्त काना ही पूर्ण ध्येय होना चाहिए। प्रभु का वास सभी के ह्रदय में है, जैसे- जैसे हम शुद्ध होते जायेंगे ; प्रभु हमें मार्ग दिखाते जायेंगे। अंत में इस देह से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।

हम सीमित इन्द्रियों से ज्ञान एकत्रित करते हैं और प्रभु को इन्द्रियों के केंद्र मन से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपूर्ण इन्द्रियां पूर्ण ज्ञान को पूर्ण रूप से नहीं समझ सकतीं। मन और इन्द्रियों के सहयोग से भी भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता। पर हम प्रभु की सेवा में अपनी इन्द्रियों को लगा दें तो वे स्वयं हमारे सामने प्रकट हो सकते हैं। श्रुति के अनुसार पुण्य कर्मों से हम सौन्दर्य , ज्ञान और उच्च योनि में जन्म पाते हैं। और पाप कर्मों से हम दुःख उठाते हैं। दुःख तो हमेशा रहता है, पुण्य हो पाप , फिर भी दोनों में अंतर है। जो प्रभु को जानता है। वह सम्भावित सभी पाप के परिणामों से मुक्ति पा लेता है, जो कई पुण्यों से प्राप्त नहीं हो सकता। यदि हम प्रभु को अस्वीकार करते हैं, तो कभी सुखी नहीं रह सकते। परम सत्य को तीन अवस्थाओं में स्वीकार किया जा सकता है। परन्तु वह एक अद्वैत सत्य है। ब्रह्म के रूप में प्रकाशमय ज्योति, अंतर्यामी परमात्मा और परम पुरुष -- ये हैं परमेश्वर के तीन स्वरूप।

हम जिह्वा के द्वारा अन्य सभी इन्द्रियों में नियंत्रण कर सकते हैं। यदि हम अपनी जिह्वा नियंत्रित नहीं कर सकते तो अपनी इन्द्रियों पर भी नियंत्रण नहीं कर पाएंगे। प्रभुसमर्पित प्रसाद को ग्रहण करने से भोजन पर नियंत्रण होता है और जिह्वा का भी संयम रहता है। प्रभु अजन्मा है और उनका कोई कारण नहीं है। हमें अनुभव है कि हमारा जन्म हुवा है और हमारा कोई कारण है। हमारे पिता हमारे कारण हैं । यदि कोई अपने आप को भगवान समझता हो तो उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह भी अजन्मा है और उसका कोई कारण नहीं। हम एक के बाद दूसरे जीवन में अपना देह वस्त्र की तरह बदलते हैं। जब हमारे इतने सारे मन हैं, इतने सारे वस्त्र हैं , तो क्यों इस तरह का दावा करते हैं?यह क्यों नहीं समझते , ये वस्त्र तो सुन्दर हैं , पर अगले ही क्षण मैं दूसरे वस्त्रों में हो जाऊंगा। हम प्रकृति के नियंत्रण में हैं , हम अपने वस्त्र का स्वयं चुनाव नहीं कर सकते।

अग्नि की चिंगारी अग्निमय है पर मूलत: वह अग्नि नहीं है। गुणों की दृष्टि से हम पर्याप्त अंश में प्रभु के समान हैं। यह अंतर उसी प्रकार का है , जैसे पिता और पुत्र के बीच होता है। पिता और पुत्र भिन्न होते हुवे भी अभिन्न हैं। पुत्र पिता का विस्तार होता है, किन्तु वह यह घोषणा नहीं कर सकता कि वह पिता है। यदि वह ऐसा कहता है तो वह मूर्खता ही होगी। उपनिषद के अनुसार दो स्वर्ण पक्षी वृक्ष पर बैठे हैं , जिनमें से एक संसार का भोग करता है जबकि दूसरा भोग नहीं करता।यह ही जीव और ईश्वर में अंतर है। हमें प्रभु का ध्यान करना चाहिए। इससे अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। पहले भक्त को योग्य बनना होगा, यदि हम बिना किसी हेतु के भगवान को स्मरण एवं गुणों का श्रवण करते हैं तो शुद्ध भक्त भगवान को प्राप्त कर ही लेता है।&&&&&&&&




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