रविवार, 6 अक्तूबर 2013

युद्ध नियति का क्रूर उपहास

युद्ध पहले मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा  




एक व्यक्ति दुर्जय समर भूमि में अनेक हजार योद्धाओं को जीतता है और एक व्यक्ति केवल अपनी आत्मा को जीतता है। यह आत्म- विजय ही परम विजय है। शांति मनष्य की चिर- अभिलाषा है और युद्ध उसकी विवशता है। 



किन्तु कुछ ने युद्ध को जीवन का सिद्धांत बना दिया। पर यह आपात स्थिति में हो सकता है। वस्तुत: युद्ध विवशता ही है। उसे आवश्यक एवं अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता। वेद में भी विशेष परिस्थितयों में कहा गया है कि मेरे पुत्र शत्रुओं का वध करने वाले हों और मेरी पुत्रियाँ वीर संतान को उत्पन्न करने वाली हों। वस्तव में युद्ध को 
अशक्यता की स्थिति में औषध अथवा उपचार के रूप में सुझाया जा सकता है। 


यह जीवन का स्वत: स्वीकार्य सिद्धांत नहीं हो सकता। मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विकास का मूल आधार स्वतंत्रता , समानता, शांतिपूर्ण सह- अस्तित्व और पारस्परिक सहयोग है। युद्ध नियति का क्रूर उपहास है। युद्ध से शांति की परिकल्पना नहीं की जा सकती। शांति का स्रोत अहिंसा , मैत्री और करुणा है। भगवान महावीर ने कहा है कि शस्त्रास्त्रों का निर्माण तो दूर की बात है , किसी प्राणी के प्रति भी हथियार नहीं बनना चाहिए। 


मनुष्य का मन , वाणी और कर्म भी किसी के प्रति आक्रामक नहीं हो , वह किसी के प्रति घातक न हो । युद्ध पहले मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होता है, फिर लड़ाई के मैदान में होता है। वैसे ही हथियार भी पहले मनुष्य के मस्तिष्क में निर्मित होते हैं , फिर किसी कारखाने में बनते हैं ।





 युद्ध के मूल कारण गरीबी , पिछड़ापन और शक्ति - हीनता हैं । युद्ध की संस्कृति जंगली संस्कृति है । शांति - काल में पुत्र अपने पिताओं की अंत्येष्टि करते हैं और युद्ध काल में पिता अपने पुत्रों की अंत्येष्टि करते हैं। वास्तव में वर्तमान विश्व - व्यवस्था या विश्व-चेतना पहले की अपेक्षा अहिंसात्मक प्रयोगों के लिए अधिक अनुकूल है । अहिंसा और विश्व - मैत्री के प्रयोग एवं गति- प्रगति की परिकल्पना की जा सकती है। यह किसी भी रूप में युद्ध और हिंसा के द्वारा सम्भव नहीं हो सकता है ।***************





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