सोमवार, 12 अगस्त 2013

व्यस्त रहने में आनन्द

व्यस्त रहने में आनन्द 




चिंता होती ही ऐसी , जो व्यक्ति को चिता के समान सुलगाये रखती है। व्यक्ति को अंदर से खोखला कर देती है और किसी तरह का कोई समाधान नहीं देती साथ ही हमारी ऊर्जा को लगातार घुन के समान खाकर नष्ट करती रहती है।  

चिंता से एक तरह का नकारात्मक विचार व्यक्ति को लगातार घेरता रहता है और धीरे - धीरे वह बड़ा होता चला जाता है।  साथ ही चिंता करने के कारण मस्तिष्क पर अत्यधिक आंतरिक तनाव पड़ता है , जो हमारे रसों एवं हारमोंस को स्रावित होने में अवरोध उत्पन्न कर देता है।  परिणामत: व्यक्ति की क्षति होना शुरू हो जाती है।  

चिंता करने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता , अपितु उसके माध्यम से अल्प समस्या भी अधिक भयावह दिखने लगती है।  जिस कार्य के सम्पादन में परिश्रम एवं संघर्ष करना पड़ता है तो उस कार्य को करने में उस समय चिंता लेश-मात्र भी नहीं रहती।  कार्य की व्यस्तता उसकी चिंता को पूर्ण रूप से उखाड़ देती है।  अत: व्यक्ति को जीवन भर व्यस्त रखने का प्रयास करना चाहिए। 

वास्तव में चिंता व्यक्ति को तभी रहती है , जब वह खाली रहता है तथा उसके पास करने को कोई भी कार्य नहीं होता। 

इस संसार में बहुत से ऐसे कार्य हैं , जिन्हें व्यक्ति कर ही नहीं सकता ; जो कार्य वह कर ही नहीं सकता , उसकी चिंता उसे नहीं करनी चाहिये।  तथा जो कार्य वह कर सकता है तो उसे पूरी तन्मयता से करना चाहिए।  व्यक्ति को जीवन का उद्देश्य आनन्द के लिए नहीं अपितु आनन्द के साथ प्रत्येक कार्य करना चाहिए।  

कर्म में ही आनन्द के भाव को विकसित करना चाहिए।  वास्तव में कर्म में व्यस्त रहने में ही सच्चा आनन्द निहित है। *****

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