स्वामी दयानंद और गुरु विरजानंद
गुरु विरजानंद अपनी कुटिया में बैठे थे। द्वार खटखटाने की आवाज आई। गुरु ने पूछा _ ' कौन है
गुरु विरजानंद अपनी कुटिया में बैठे थे। द्वार खटखटाने की आवाज आई। गुरु ने पूछा _ ' कौन है
बाहर ? ' उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। दूसरी - तीसरी बार पूछने पर भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो
विरजानन्दजी सहारा लेकर बाहर निकले। उन्हें पता चला कि बाहर मूलशंकर खड़े थे। उन्होंने उनसे पूछा _ ' क्यों रे ! पूछने पर बोल क्यों नहीं कि तू था ? ' मूलशंकर ने उत्तर दिया _ ' जब यह पता
नहीं कि मैं कौन हूँ तो क्या उत्तर देता ? '
गुरु विरजानंद ने प्यार से उसकी पीठ थपथपाई और फिर बोले _ ' आ जा बेटा ! कब से तेरा ही इन्तजार कर रहा था। ' दिव्य प्रतिभा सम्पन्न गुरु और प्रखर प्रतिभा सम्पन्न शिष्य का मिलन हुवा . यही मूलशंकर आगे चलकर स्वामी दयानंद के नाम से प्रख्यात हुवे। ******
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