गुरुवार, 15 अगस्त 2013

कायाकल्प

कायाकल्प
                                                 
                                                         
मगध देश के राजा चित्रांगद वन-विहार को निकले। एक सुंदर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटिया दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुवे कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है यह। महात्मा ने वह धन-राशि लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गयी , पर सब लौटा  दी गयी। 


राजा स्वयं गये और पूछा कि आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की ? महात्मा हँस कर बोले _ " मेरी आश्यकता के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है। " राजा ने देखा कुटीर में एक तूम्बा , एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र भर था ; यहाँ तक कि धन रखने के लिए और कोई सन्दूक आदि भी नहीं था।  

राजा ने फिर कहा _ ' मुझे कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। ' महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर राजा के कान में कहा _ " मैं रसायनी विद्या जानता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ। " अब राजा की नींद उड़ गयी। 

वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और महात्मा के पास सुबह ही पहुँच कर कहा _ " महाराज ! मुझे वह  विद्या सिखा दीजिये , ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूँ। " महात्मा ने कहा _ " इसके लिए तुम्हें समय देना होगा।  वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा।  मैं जो कहूँ उसे ध्यान से सुनना । एक वर्ष बाद तुम्हें 
सिखा दूंगा। "    

राजा नित्य आने लगा।  सत्संग एवं आचार-गंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा।  एक वर्ष में राजा के विचारों में  परिवर्तन आ चुका था।  महात्मा ने स्नेह से पूछा _ " विद्या सीखोगे ? "  राजा बोले _ " प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन  बन गया।  अब किसी नश्वर विद्या को सीख कर क्या करूंगा ? " ऐसा होता है _ काया-कल्प। 

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