लक्ष्मी द्वारा पुरुषार्थी का ही वरण
लक्ष्मी से देवता चिरकाल अनरोध करते थे कि आप असुरों के यहाँ न रहें , हमारे पास रहें। पर लक्ष्मीजी ने असुर का निवास छोड़ा ही नहीं। इधर देवताओं ने विलासिता का जीवन त्यागा ;
एकजुट हुवे एवं लक्ष्मीजी का आह्वान हेतु पुरुषार्थ में तत्पर हो गये। उधर से लक्ष्मीजी असुर -निवास छोड़कर देवलोक आ गयीं।
देवताओं ने कहा _ " अभी तो हमने कुछ किया भी नहीं था। आप असुरों को छोड़कर कैसे आ गयीं ?"
लक्ष्मी जी बोलीं _ " सुर- असुर होने का पुण्य - पाप भगवान देखते हैं। मैं तो बस पुरषार्थ देखती हूँ।
आलस्य - प्रमाद और दुर्व्यसन जहाँ हों तो मैं वहाँ नहीं रह सकती। "
असुर उसी में लिप्त हो गए थे। इधर आप भी बदल गये थे।
लक्ष्मीजी पुरुषार्थी का ही वरण करती हैं। *******
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