मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

जैसा बीज वैसा फल

जैसा कारण होता है ,वैसा कार्य सम्पन्न होता है 


अध्यात्म से तात्पर्य अपनी  अनुभूति द्वारा अंदर की सच्चाइयों को जानना । धर्म कहते हैं धारण करने अर्थात अपने जीवन में स्वीकार करने को । पर न कभी भीतर देख क़र सच्चाई का अनुभव किया , न उसे धारण किया ।


 अन्तर्मुखी कल्पनात्मक रूप प्राय: व्यक्ति रहता है , वह कल्पना ही कल्पना करता है ; कल्पना उसे प्रिय लगती है। यह सुखद ही  होती है ,पर सच्चायी से कोसों दूर । पर कल्पना-युक्त अन्तर्मुखिता की अपेक्षा कल्पना-मुक्त अन्तर्मुखिता ही सत्यता के दर्शन करा सकती है। हमें इस़ी को ही करने का अभ्यास करना चाहिए । हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में कुछ-न -कुछ हो ही रहा है । शांत चित्त उसे देखना है ।


 धीरे-धीरे मन स्थूल से सूक्ष्म होने लगेगा और सूक्ष्म मन संवेदन शील होने लगेगा। अब तक भोक्ता होकर भोगते आये हैं । अब उसे द्रष्टा ,साक्षी एवं तटस्थ भाव से देखेंगे, न अच्छा मानेंगे ,न बुरा मानेंगे । जिस स्थान पर जैसी संवेदना हो रही है ,उसे जानना है । कोई प्रतिक्रिया नही करनी है । इस प्रकार प्रकट को प्राप्त कर सकते हैं। जब तक चित्त पर राग,द्वेष ,मोह आदि के घने -घने बादल छाये रहेंगे ,परम सत्य का साक्षात्कार नहीं हो पायेगा ।


इस संसार को भव संसार कहा गया है --भव, भव, भव । ऐसा कुछ भी नहीं है , जो बन कर तैयार हो गया हो और अब उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा । सब कुछ बदल रहा है । यह सच्चाई जब अनुभूति के स्तर पर जानेंगे , तब वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण सत्य का दर्शन होगा। जैसा कारण होता है ,वैसा कार्य सम्पन्न होता है


प्रकृति का नियम है --जैसा बीज वैसा फल यदि कढवा नीम बोयेंगे तो कढवा फल ही आएगा मीठा आम बोयेंगे तो मीठा फल आएगा । इसके विपरीत हो ही नहीं सकता । जैसा बीज वैसा ही फल आने वाला है तो अपने कर्म -बीजों के प्रति सजग रहना होगा । न शरीर का कर्म फल देता है , न वाणी का कर्म, मनका कर्म ही फल देता है। अनुभूतियों के स्तर पर जानकर मानना होगा कि जैसी चित्त की चेतना होती है ,वैसा ही फल आता है ।


 यदि चित्त की चेतना सुधरी हुई है तो वाणी से ,शरीर से जो कर्म होंगे , कल्याणकारी ही होंगे। चित्त की चेतना को चार भागों में विभाजित किया गया है --विज्ञानं, संज्ञा ,वेदना और संस्कार । विज्ञानं का अर्थ है जानकारी होना ,संज्ञा पहचानने का काम करती है ,वेदना अर्थात संवेदना -सुखद भी होती है दुखद भी । जैसे ही दुखद या सुखद संवेदना होती है ,तुरंत उसके प्रति प्रतिक्रिया होती है । इसी प्रतिक्रिया को संस्कार कहा गया है ।संस्कार जो प्रतिक्रिया करता है वही बीज बनता है। यह संस्कार शरीर की संवेदना के आधार पर ही बनेगा ।


संवेदना सुखद हो या दुखद ,वह नश्वर है, भंगुर है । उसे द्रष्टा -भाव से देखना है । जितना-जितना द्रष्टा -भाव पुष्ट होता चला जायेगा ,उतना-उतना पुराना भोक्ता -भाव का स्वभाव ,राग-रंजित , द्वेष दूषित और मोह -विमूधितरहने का स्वभाव टूटता चला जायेगा और वीत -रगता वीत-द्वेषता और वीत-मोहता दृढ होती चली जाएगी , प्रज्ञा पुष्ट होगी ; जहाँ प्रज्ञा पुष्ट होगी य्स्नी प्रज्ञा में स्थित होंगे ,वहां अनासक्त होंगे ही । जीवन-मुक्त होंगे ही । वाणी तो वश में भली ,वश में भला शरीर । पर जो मन वश में करे , वही शूर वह वीर। ।****



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