मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

सुखवाद के साथ स्वार्थवाद

सुख- दुःख -- ये सब अपने- अपने होते 




सुख का आधार छिन जाने पर दुःख होना स्वाभाविक है। कहीं - कहीं ऐसा भी होता है कि आसरा सुरक्षित है , पर उससे सुख न मिले , सहारा न मिले तथा स्वार्थ सिद्ध न हो। ऐसी परिस्थिति में आश्रित व्यक्ति उसे छोड़ कर चले जाते हैं। हरेभरे वृक्ष पर हजारों पक्षी नीढ़ बना कर रहते हैं। किन्तु पतझर में उसे छोढ़ कर चले जाते हैं , वे अन्य वृक्षों की खोज में निकल पढ़ते हैं।



 हमारे जीवन के दो पक्ष हैं-- वैयक्तिक और सामाजिक । ज्ञान, आचरण , शक्ति, संवेदन , सुख- दुःख -- ये सब अपने- अपने होते हैं एवं व्यक्तिगत होते हैं। व्यक्ति रहते हुवे भी मनुष्य ने सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों को स्थापित किया । इन सम्बन्धों का प्रमुख आधार आत्म- सुरक्षा और आत्म- तृप्ति ही रहा है। सुखवाद की भावना बलवती होती है, सुखवाद के साथ स्वार्थवाद जुढ़ा होता है।


 जीवन के तीन स्तर हैं --- स्वार्थ प्रधान , परार्थ- प्रधान और परमार्थ- प्रधान । क्रमश: ये तीन वृत्त इस प्रकार हैं ---मैं को केंद्र और तू को परिधि बनाकर , तू को केंद्र और मैं को परिधि बनाकर तथा न कोई केंद्र और न कोई परिधि । अंतिम स्थिति श्रेष्ठतम है , यह निर-अहंकार निष्काम भाव का स्तर है । अध्यात्म की भूमिका में ध्येय होता है , मात्र परमार्थ । और यह साधना का शिखर है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&







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