गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

मन के चार बढ़े दुश्मन

प्रज्ञा के पुष्ट होते-होते स्थित-प्रज्ञ 


स्थित-प्रज्ञ ही प्रज्ञा में होता है। प्रज्ञा का अर्थ --प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। मन और शरीर का गहरा सम्बन्ध है। ये  शरीर और चित्त दोनों से उत्पन्न होते हैं। यदि चित्त पर क्रोध आया तो शरीर में अग्नि-प्रधान परमाणु बनते हैं। भय आया तो सारा शरीर प्रकम्पित होता है ,अत:वायु प्रधान परमाणु उत्पन्न होते हैं। चित्त पर जैसे संस्कार ढ़लते हैं , वैसे ही परमाणु बनते हैं।



 शरीर में जो परमाणु बन रहे हैं, वे चाहे भोजन के कारण हों , बाह्य वातावरण के कारण हों या पुराने हों, यदि उन्हें द्रष्टा -भाव एवं तटस्थ -भाव से देखने लगेंगे तो नये संस्कार नहीं बनेंगे और साथ ही पुराने भी दूर हो जाएँगे। इस प्रकार प्रज्ञा के पुष्ट होते-होते स्थित-प्रज्ञ हो ही जायेंगे। जीवन्मुक्त हो ही जायेंगे। समता में स्थिर होने पर क्रिया तो करेंगे पर प्रतिक्रिया नहीं होगी। क्रिया सदा रचनात्मक होती है, विधेयात्मक होती है एवं कल्याणकारिणी होती है। हमारे मन के चार बढ़े दुश्मन हैं , उनसे सजग रहने की आवश्यकता है। यें राग,द्वेष, आलस्य, बेचैनी एवं आलस्य हैं।^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ 



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