शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

जैसा बीज वैसा ही फल

धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञ्या।


अपनी वाणी या शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञ्या।


  प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञ्या । शील का अर्थ है __ सदाचार। शील के अंतर्गत सम्यक वाणी ,सम्यक कर्म और सम्यक आजीविका आती है।


 हर कर्म का प्रारम्भ मन से होता है ,फिर वाणी पर उतरता है और इसके बाद शरीर को वश में कर लेता है। अत: शरीर का प्रत्येक कर्म शुद्ध एवं पवित्र होना चाहिए। सम्यक आजीविका से तात्पर्य ईमानदारी से व्यवसाय करना है।


 धर्म का दूसरा क्षेत्र है- समाधि। मन के विकार को दूर करने के लिए, मन की निर्भरता को दूर करने के लिए मन का व्यायाम आवश्यक है। मन के व्यायाम में मन का निरीक्षण भली भांति करना चाहिए। मन के निरीक्षण में जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है। 



स्मृति से तात्पर्य जागरूकता है। जागरूकता वर्तमान क्षण के प्रति होनी चाहिए इसे ही सम्यक स्मृति कहा गया है। सम्यक समाधि का तात्पर्य है चित की एकाग्रता। हमारा चित एकाग्र तथा सतत जागरूक होना चाहिए। जागरूकता वर्तमान क्षण के प्रति होती है। जो सांस के ध्यान पर प्राप्त की जा सकती है। इसे ही शुद्ध एवं निर्मल समाधि कहते हैं।



साँस देखते -देखते , सत्य प्रकटता जाये। सत्य देखते-देखते परम सत्य दिख जाये॥ इति ++




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