गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

लाभ व्यवहार से


लोक -मंगल में अपना मंगल 


समर्पण भाव हो तो काम अच्छा होता है । जो व्यक्ति केवल बौध्दिक स्तर पर अथवा भावावेश के स्तर स्वीकार करके रह नहीं जाता , अपितु वास्तविकता एवं के स्तर पर स्वीकार करता है। अर्थात उसे धारण करता है। उसे जीवन का अंग बना लेता है। तथा वह जीवन भर के लिए धर्म की शरण आ जाता है। शांति -पूर्वक , सुख -पूर्वक एवं जिसमें हमारा तथा अन्यों का भी मंगल हो तो यही धर्म का वास्तव में व्यावहारिक पक्ष है।


वास्तव में लाभ व्यवहार से ही होता है। व्यवहारिक पक्ष शील- सदाचार है। मन को वश में करना समाधि है। चित्त को राग- द्वेष विहीन बनाने का काम प्रज्ञा का है। यह ही मन को निर्मल बनाती है। धर्म पलायन के लिए नहीं है। अभिमुख होकर जीने के लिए है।आधा मन यहाँ ,आधा मन वहां ; न यह होगा न वह होगा। इसलिए जब कोई काम करें ,यो सारा ध्यान उस काम में रखें । वह काम बहुत कुशलता से सम्पन्न होगा। कभी धर्म का दिखावा न करें। सारे मंगल , सारे सुख भीतर ही समाये हुवे हैं। अभ्यास करते जाएँ , धर्म को पूर्ण प्राप्त कर मंगल भाव को ग्रहण करें। अपने मंगल में लोक-मंगल समाया हुवा है।


लोक -मंगल में अपना मंगल समाया हुवा है। धर्म का जितना-जितना संवर्धन होगा उतना-उतना अधिक मंगल सधेगा। धर्म में सब का मंगल समाविष्ट है।--" मेरे अर्जित पुण्य में , भाग सभी का होय। मेरे सुख में शांति में, भाग सभी का होय। । सबका मंगल ,सबका मंगल सबका मंगल होय रे। । तेरा मंगल , तेरा मंगल , तेरा मंगल होय रे। ।*************************************************************


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