रविवार, 22 दिसंबर 2013

शोर एक मृत्यु का धीमा कारक

ध्वनि - प्रदूषण के कारण अनेक लोग रोग- ग्रस्त 



मूलत: भाषा - प्रयोग सामाजिक सम्पर्क का सूत्र था , विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम था , किन्तु आज वह समूचे पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एक चुनौती बन गया है। शब्द से ही सृष्टि का उद्भव मानने वालों के लिए शब्द ब्रह्म है। ध्वनि वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया है कि अधिक कोलाहल मनुष्य के ज्ञान - तन्तुओं को क्षतिग्रस्त करता है।


 हमारे श्वास कि आवाज १० desibals है। हमारे कानों कि संरचना ही ऐसी है कि ३०- ९० desibals वाली आवाज जब होती है, तो दो स्नायु सिकुड़ते हैं और वे भीतर की श्रवण - इन्द्रिय को संदेश पहुंचाते हैं। हमारा शरीर और मन दोनों एक नाजुक लय के साथ गतिशील रहते हैं। ध्वनि - प्रदूषण के कारण अनेक लोग रोग- ग्रस्त हो रहे हैं।


 वास्तव में शोर एक मृत्यु का धीमा कारक है, इस जानलेवा शोर के आतंक में आज अधिकांश आबादी जी रही है। ध्वनि- प्रदूषण को रोकने के लिए बोलना तो बंद नहीं किया जा सकता ; पर उसपर संयम अवश्य ही रखा जा सकता है। भगवान महावीर का सम्यक- वाणी का सिद्धांत इस सन्दर्भ में अवश्य ही उपयोगी हो सकता है।


 इसके अनुसार अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए। बोलना अपेक्षित हो तो विवेक पूर्वक बोलो। रात्रि के मध्यवर्ती दो प्रहरों में ऊंचे स्वर से मत बोलो , क्योंकि यह समय प्राय; विश्राम एवं नींद का होता है। सामान्य व्यवहार में भी कटु और कर्कश शब्दों का प्रयोग मत करो तथा मितभाषी बनने का प्रयास करना चाहिए ।


 शब्द मन के टुकड़े-टुकड़े भी कर देता है और टूटे मन के तारों को भी जोड़ देता है। यह सब शब्दों के संयोग , उच्चारण , लय, ताल और आरोह- अवरोह पर अधिक निर्भर करता है। आवाजें जहाँ हानिप्रद होती हैं , वहां मधुर धीमी , और सुरीली आवाजें लाभप्रद भी हैं। ध्वनि- वैज्ञानिकों के अनुसार जितनी प्राकृतिक ध्वनियाँ हैं , वे सब बहुत लाभकारी होती हैं।


 जैसे-- वर्षा होना , वृक्षों से टकराकर हवा का बहना , पक्षियों का गाना , समुद्र का उफनना , झरनों का कल-कल करना आदि ; इनकी आवाजें स्वास्थ्य और शक्ति प्रदान करती हैं। अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि धीमी और मधुर ध्वनियों की तरंगों से ज्ञान- तन्तुओं का दबाव और तनाव कम होता है। 



अनावश्यक नहीं बोलना , धीमे स्वर से बोलना , वाहनों की ऊंची आवाजों को नियंत्रित करना , लाउड-स्पीकर का कम से कम प्रयोग आदि के साथ- साथ मधुर एवं सहज संगीत सुखदायी होता है। मंत्रोच्चारण के माध्यम से वातावरण में विशिष्ट प्रकार की ध्वनि- तरंगों को उत्पन्न कर ध्वनि-प्रदूषण के कुप्रभाव को रोका जा सकता है। उत्तम ही कथन है-- " भूल गये भाषा अदृश्य की , अकथ कथा कहने की । बकते- बकते भूल गये हम , महिमा चुप रहने की ॥ "***************************************



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