शनिवार, 28 दिसंबर 2013

अशांत- मानस कभी आनन्द को उपलब्ध नहीं

चेतना की अन्तर्मुखता 



प्रेक्षा-ध्यान का सामान्य अर्थ है--देखना , किन्तु देखने की भी एक पद्धति होती है। ध्यान के सन्दर्भ में प्रेक्षा का अर्थ आँखों से देखना नहीं है। उसका अर्थ है--अनुभव करना। राग और द्वेष रहित शुद्ध चेतना की प्रेक्षा करना।


 प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास अपने आप को जानने और देखने का अभ्यास है। यह पद्धति स्वयंके साथ होने की पद्धति है, स्वयं को जानने की और देखने की पद्धति है। इससे संस्कारों का परिष्करण या विलयन हो जाता है। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखने का अर्थ है--दर्पण के सामने दूसरा दर्पण रख देना। प्रेक्षा - ध्यान का प्रयोजन चित्त का निर्मलीकरण और परिकष्करण है। 


अशांत- मानस कभी आनन्द को उपलब्ध नहीं होता। आनंद के अंकुर शांत मन की उर्वरा में ही प्रस्फुटित होते हैं। प्रेक्षा-ध्यान साधना का मूल प्रयोजन भावनात्मक परिवर्तन है। फलस्वरूप व्यक्ति अनेक रोगों से आक्रांत हो जाता है। 


रोग मुख्यत:तीन प्रकार के होते हैं-- शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक अथवा भावात्मक । वाट, पित्त और कफ की विषमता या धातु -संक्षोभ से उत्पन्न होने वाले रोग शरीरिक रोग हैं। चिंता , संत्रास ,तनाव , घुटन, विक्षिप्तता आदि ये मानसिक रोग हैं। उत्तेजना, अहं , छलना , ईर्ष्या ,वासना आदि ये आध्यात्मिक अथवा भावनात्मक रोग हैं।


प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया में धर्म और विज्ञानं का सुन्दर समन्वय परिलक्षित होता है। यह साधना पद्धति ऐसी है कि इसमें वृतियों का दमन नहीं होता , अपितु उनका परिष्कार होता है। त्रिगुप्ति की साधना ही प्रेक्षाध्यान का आधारभूत तत्त्व है। ध्यान का प्रयोजन चेतना की अन्तर्मुखता है। चेतना को अन्तर्मुखी बनाने के लिए शरीर, मन, वाणी, और श्वास को साधना अत्यंत आवश्यक है। यही प्रेक्षाध्यान का मूल भाव है।*****






1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सही बताया है सर आपने आज के इस भाग दौड़ भरी दुनिया में आप जैसे बुध्धिजीव लोगों की बहुत ही आवश्यकता है।



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