शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

यथार्थ में दुःख- मुक्ति ही मुक्ति

आत्मोदय का प्रतीक है आसक्ति का छूट जाना 



आसक्ति संसार है और अनासक्ति मुक्ति है। आसक्ति से मुक्त रहना ही मुक्ति का प्रवेश द्वार है। अध्यात्म की दृष्टि में पदार्थ अपने आप में न बंधन है, न दुःख है। बंधन और दुःख पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि में है। मुक्ति की बाधा राग, द्वेष और मोह चेतना में है। 


बहिर्मुखी मन इन्द्रियों को स्पर्श, रस, गंध , रूप और शब्द -- इनके प्रति आकर्षित करता है। फिर अनुकूल विषयों के साथ प्रियता एवं प्रतिकूल विषयों के साथ अप्रियता के भाव जुढ़ते हैं। निराहार रहने से विषय - निवृत्ति होती है, रस- निवृत्ति नहीं होती। रस या आकर्षण तब छूटता है , जब रसातीत परम- तत्त्व का साक्षात्कार होता है। इन्द्रियों के बहाव को हठात रोके रहना संयम नहीं है। उसके लिए अपेक्षित है , चित्त- वृत्तियों का शोधन एवं परिष्कार। क्योंकि दमित इच्छाएं और वासनाएं विस्फोटक होती हैं।


 आत्मोदय का प्रतीक है आसक्ति का छूट जाना आसक्ति के छूटते ही विषय स्वत: ही छूट जाते हैं। प्रिय एवं अप्रिय प्रत्येक परिस्थिति को संतुलित भाव से सहने का अभ्यास करना चाहिए। इसी भांति मानसिक कष्ट का अनुभव भी तभी होता है, जब उसे मन स्वीकार कर लेता है। साथ ही यह मन की सकारात्मक या नकारात्मक सोच का ही परिणाम है। पदार्थ या परिस्थिति के साथ सम्बन्ध स्थापित न होना ही अस्पर्श- योग है। 


वास्तव में सुख या दुःख हमारी अनुभूति के ही सापेक्ष है। जो वस्तु चली गयी है , उसके लिए रोना व्यर्थ है। बुद्धिमानी इसी में है कि जो शेष है , उसका पूरा उपयोग किया जाये। दुःख और आनन्द दोनों ही स्थिति को स्वीकार मत करो। यह अस्वीकार कि स्थिति ही सिद्धि का प्रवेश -द्वार है। यथार्थ में दुःख- मुक्ति ही मुक्ति है। अनासक्ति और अस्पर्श - योग बढ़कर उसकी कोई अन्य व्याख्या नहीं हो सकती। बंधन- मुक्ति हमारे अपने ही भीतर है , वह कहीं बाहर नहीं हो सकती। इसे ही अनासक्ति- मुक्ति भी कहा जा सकता है।&&&&&&&&&&&&&





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