शनिवार, 11 जनवरी 2014

सत्य को अपनी अनुभूति के स्तर पर

भावनामयी -प्रज्ञा


भावनामयी -प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश में हेतु अधुना विचार करना है । अपनी अनुभूतियों के बलपर जो प्रज्ञा बढ़ रही है , वह कल्याणकारी प्रज्ञा है । सत्य को अपनी अनुभूति के स्तर पर जो जाने ,वही भावनामयी प्रज्ञा है । अपनी अनुभूति में जो उतर रहा है , वही अपनी प्रज्ञा है। सबसे पहले सच्चाई इस शरीर की है । इससे काम शुरू करते हैं और इसकी सूक्ष्मताओं में उतरते हैं । धीरे- धीरे चित्त की सूक्ष्मताओं में उतरते हैं उस के , गुण ,धर्म , स्वभाव को देखते हैं । इसके बाद जो इन्द्रियातीत धर्म है , सच्चाई है, लोकातीत धर्म है , उसका साक्षात्कार अपने आप हो जाता है ।

 अनुभूति से मालूम कि उत्पन्न - नष्ट होने वाले ये कण परमाणु से भी छोटे हैं , उस समय की समृद्ध भाषा में भी ऐसे छोटे कण को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं था । तब एक नये शब्द अश्ट्कलाप kओ स्वीकार किया गया । अष्ट कलाप उस ईकाई को कहा , जहाँ आठ चीजें जुढ गयीं । उनके और टुकढे नही हो सकते । यह है भौतिक जगत की नन्ही -सी -नन्ही इकाई ।

 चार भौतिक तत्व और उनके अपने -अपने गुण ,धर्म और स्वभाव । अनुभूतियों के स्तर पर जब यह बात स्पष्ट होती है कि यह शरीर कितना अनित्य है, कितना भंगुर है । प्रति क्षण उदय होता है ,व्यय होता है ,तो आसक्तियां अपने आप टूटने लगती हैं । ज्यों -ज्यों अनित्य-बोध पुष्ट होने लगता है , त्यों-त्यों प्रज्ञा का दूसरा अंग अनात्म-बोध स्पष्ट होने लगता है ।

 अनुभूति के स्तर पर देखने लगेंगे तो पता चलेगा कि जिनके प्रति आसक्ति पैदा कर रहे हैं ,ये तो तरंगें ही तरंगें हैं । अनात्म का अर्थ है ,जहाँ अहं समाप्त हो जाये । तभी राग मिटता है ,द्वेष मिटता है । परिणामत: प्रज्ञा के तीसरे अंग दु:ख का वास्तविक बोध होने लगता है । सही माने में दुख के दर्शन होने लगेंगे । 

प्राय: जिसे सुख संवेदना कहते हैं ,अनित्य स्वभाव वाली होने के कारण उसके नष्ट होने पर जो दुःख होता है ,उसे भी जानेंगे तथा उसे साक्षी ,द्रष्टा एवं तटस्थ भाव देखना सीखेंगे । अनित्य ,अनात्म और दुःख की ये तीनों प्रज्ञा भीतर से अपने- आप जागने लगेंगी ,तो बाह्य जगत में भी प्रज्ञा का शासन चलेगा । जो बात अशुभ है ,अशुभ ही लगेगी । जो असुन्दर है ,असुन्दर ही लगेगी ।चित्त से चित्त का दमन कर ,चित्त से चित्त सुधार । चित्त स्वच्छ कर चित्त से ,खोल मुक्ति के द्वार ।।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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