बुधवार, 1 जनवरी 2014

कठिनाइयों से भागो मत

जीवन की कठिनाइयों से भागो मत ,अभिमुख होकर उनका सामना करो। 



जीवन में एक बड़ी भ्रान्ति चलती है। इस का कारण है कि हम सदैव बहिर्मुखी होते हैं।सदा ओरों को ही देखते हैं। बाहर की परिस्थितियों को ही देखते हैं , अत: दोष बाहर ही देखते हैं। बाहर की घटना , स्थिति ,वस्तु, व्यक्ति को ही अपने दुःख का कारण मानते हैं। तथा उसे ही सुधारने में ही अपना श्रम लगा देते हैं।

 साधना इसलिए है कि अंतर्मुखी होकर अपने आप को देखें ; जैसे हैं , वैसे ही देखें । अपने दोष का दर्शन ही साधना है, दुःख का दर्शन करना है। दुःख का दर्शन करने का मतलब निराशा में डूबना नहीं है। अपने दुखों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, अन्य कोई नहीं है। बहिर्मुखी तो बहुत रहे पर अब स्वमुखी और अन्तर्मुखी होना है एवं प्रज्ञा जगानी है।

 आंशिक दर्शन मिथ्या तथा भ्रामक है। अनेकांत दृष्टि सर्वांगीण दृष्टि प्रदान करती है। यही ज्ञान-चक्षु से अपने भीतर देखने की प्रज्ञा है। भीतर व्याकुलता विकार के जागृत होने पर ही आती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने बतलाया कि जीवन की कठिनाइयों से भागो मत ,अभिमुख होकर उनका सामना करो। क्रोध आया तो क्रोध को देखो,भय आया तो भय को देखो ; इस प्रकार देखना यदि आ गया तो इन विकारों का शमन होने लगेगा। 

धर्म बुद्धि-विलास में नहीं है,अनुभूतियों से प्राप्त धर्म ही वास्तव में धर्म है। अनुभूतियों के स्तर सत्य के दर्शन करते हुवे यह बात स्पष्ट हुई किजब-जब चित्त पर कोई विकार जगता है, तो बहुत स्थूल - स्तर पर साँस अपनी स्वाभाविकता खो देता है। अस्वाभाविक होकर सूक्ष्म स्तर पर सारेशरीर में कहीं-न-कहीं , कोई -न-कोई जीव - रासायनिक प्रतिक्रिया तीव्र रूप से शुरू हो जाती है। 

यह चित्त -धारा और शरीर-धारा अलग-अलग नहीं हैं। अन्योन्याश्रित हैं। एक दूसरे का , एक दूसरे पर प्रतिक्षण प्रभाव पड़ता रहता है। इसलिए इन्हें सहज एवं सहजात कहा गया है। दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। हमारे दुःख का कारण बाहर के व्यक्तियों , वस्तुओं एवं घटनाओं में नहीं है। उसे वास्तव में दूर करना है। दुःख का कारण तो इस मैं और मेरे में है। इस मम -भाव और अहं -भाव में है। साथ ही इस गहरी आसक्ति में है। स्वप्न लेना बुरी बात नहीं है , परन्तु स्वप्नों क्र साथ चिपक जाना बहुत बुरा है।अत:बहिर्मुखी नहीं होकर अन्तर्मुखी होना ही सच्ची साधना है। --"सुख आये नाचे नहीं , दुःख आये नहीं रोय। दोनों में समता रहे , तो ही मंगल होय।। " इति =+

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