सोमवार, 6 जनवरी 2014

हर कर्म का प्रारम्भ मन से

अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान 


अपनी वाणी या शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। 

जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञा वाणी याअपनी शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुंचता हो , शांति मिलती हो ,उनका मंगल होता हो ,वही पुण्य धर्म है ,वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों की हानि करते हैं , वे स्वयं की भी हानि करते हैं। अन्य को लाभ पहुचाने वाला कर्म स्वयं को भी लाभ प्रदान करता है यह एक सहज विधान है। जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पाएंगे। प्रकृति के इस कानून के अनुसार चलना ही धर्म है। 

इस धर्म को समझने के लिए तीन भाग हैं _ शील,समाधि और प्रज्ञा । शील का अर्थ है __ सदाचार। शील के अंतर्गत सम्यक वाणी ,सम्यक कर्म और सम्यक आजीविका आती है। हर कर्म का प्रारम्भ मन से होता है ,फिर वाणी पर उतरता है और इसके बाद शरीर को वश में कर लेता है। अत: शरीर का प्रत्येक कर्म शुद्ध एवं पवित्र हो ना चाहिए। 

सम्यक आजीविका से तात्पर्य ईमानदारी से व्यवसाय करना है।प्रज्ञा के दो अंग _ सम्यक संकल्प और सम्यक दृष्टि हैं । संकल्प का अर्थ है _ चिंतन , मनन। हमारे मन में जो संकल्प-विकल्प चलते हैं , वे सम्यक होने चाहिएं। साँस के प्रति साक्षी भाव लाते-लाते , स्मृति का अभ्यास करते -करते ,अनुभव होता है कि दूषित विचारों से कम से कम छुटकारा होने लगा है। दूषित विचार कम होने लगे हैं ।

 दर्शन का सही अर्थ है ,जो बात ,जो वस्तु जैसी है , उसे ही उसके गुण धर्म-स्वभाव में देखें । यही सम्यक दर्शन है । साथ ही प्रज्ञा के तीन सोपान हैं _ श्रुतमयी प्रज्ञा , चिंतन मयी प्रज्ञा और भावनामयी प्रज्ञा श्रुतमयी प्रज्ञा का अर्थ है वह ज्ञान,जो हमने सुनलिया अथवा शास्त्रों में पढ़ लिया । चिंतन मयी प्रज्ञा का महत्त्व अपना मनन करना मनुष्य का स्वभाव है , उसका अपना प्राकृतिक धर्म है । जब तक अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने ज्ञान की वृद्धि नहीं होगी ,सही माने में लाभ नहीं होगा ।

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