सोमवार, 4 नवंबर 2013

हमारा उद्देश्य उपवन लगाना है , जंगल नहीं

कारण रूप बीज से कार्य रूप वृक्ष का पूर्णत: सम्बन्ध - विच्छेद नहीं कराया जा सकता 



अधिकारी ,विषय , सम्बन्ध और प्रयोजन -- इन प्रश्नों को सामने रख कर जो विचार किया जाता है , वह अनुबंध चतुष्टय है । अधिकारी के सम्बन्ध में उस युग में विचार किया जाता था , जब ग्रन्थ बाजार में नहीं बिकते थे । वे इस बात का भी ध्यान रखते थे कि ग्रन्थ का दुरूपयोग न हो। हीन व्यक्तियों को सद्विद्या देना इसीलिए वर्जित था कि विद्या से बड़ी हुई उसकी बुद्धि -शक्ति अधिक - से- अधिक अनर्थ करने वाली बन जाएगी , मानो बन्दर को आग पैदा करने की कला का ज्ञान हो गया । 

बुद्धि स्वयं में एक अजेय शक्ति मात्र है। वह जिस रंग में रहेगी उसी में काम करेगी -- वह न तो बुरी है और न भली। बिजली की शक्ति भारी मशीनों को चलाती है , तो स्वयं ताप भी पैदा करती है। वह बर्फ भी जमा देती है , तो प्रकाश भी देती है। वह स्वयं कुछ भी नहीं है , यही हाल बुद्धि का भी मानना चाहिए । आज के वातारण में , जबकि संपर्क स्थापन के कारणों और सुविधाओं की विपुलता है, सारी दुनिया एक दूसरे के बहुत निकट खिसकती चली आ रही है। तब यह सोचना व्यर्थ ही होगा कि मिश्रण - दोष में अनियंत्रित वृद्धि नहीं हो रही है।

अब तो यह विभाजन भी असंभव - सा हो गया है। ऐसी स्थिति में अधिकारी और अनधिकारी के प्रश्न पर विचार करने का प्रयास करना बुद्धि - व्यभिचार मात्र है -- या तो सभी अधिकारी हैं या सभी अनधिकारी। अब विषय पर विचार करना चाहिए। हमें उस आर्य जाती के जीवन- दर्शन पर ही विचार करना होगा। जिसने इस पवित्र भू - भाग को अपनी श्रेष्ठता के कारण ' आर्यावर्त ' नाम दिया था -- " आर्य ईश्वरपुत्र:" । आर्य शब्द में ' ऋ ' धातु है , जो श्रेष्ठ और गति दोनों अर्थों में है। आर्य यदि श्रेष्ठ तो वे स्थिर नहीं अपितु गतिशील थे। सभी क्षेत्रों में उनकी सम गति थी।

 श्रेष्ठत्व का वरण जन्म के आधार पर नहीं किया जा सकता , यह तो कर्म - सापेक्ष है। जन्मना श्रेष्ठ कहे जाने की भावना तब फैली होगी जब किसी वर्ग - विशेष के मानव स्वभावत: श्रेष्ठ होते थे , किन्तु उस वर्ग के भीतर ऐसे गुणों का विकास युगों की कठिन साधना की सिद्धि के कारण ही हुवा होगा , अनायास नहीं । अपने शील , शौर्य , दाक्षिण्य आदि गुणों के कारण आर्य जाति ने आर्य शब्द को जो गौरव प्रदान किया , वह आश्चर्यजनक है । एक ऐसी जाति का , जो प्रकाश की ओर बढ़ने का प्रयास कर रही है और अपने शुभ प्रयास के सुखद परिणाम की झलक प्रत्येक पग पर प्राप्त कर रही है , जीवन -दर्शन कैसा हो सकता है , यह एक विचारणीय विषय है । 

दो अंतों के बीच में ही जीवन के स्पंदन का अनुभव किया जा सकता है। हम उन विचारों से सम्बन्ध स्थापित करना चाहेंगे , जिनके कारण आर्य आज तक सुनियोजित स्थिति पर हैं । आचार के प्राण विचार होते हैं , विकारों के तेज से आचारों की शुद्धता को बल मिलता है । कल्याण के मार्ग पर चलने की कामना -- ' स्वस्ति पन्थामनुचरेम' ही आर्यत्व है । प्रयोजन है विचारों के माध्यम से कुछ ऐसे तथ्यों को समेट कर उन्हें घनत्व प्रदान करना , जो सम्भवत: अपने स्वरूप के नहीं रहने के कारण बिखर से गये हैं। कारण रूप बीज से कार्य रूप वृक्ष का पूर्णत: सम्बन्ध - विच्छेद नहीं कराया जा सकता । 

कारण कार्य के रूप में बदल जाता है , जैसे शब्द अर्थ के रूप में बदल जाता है ; फिर भी शब्द का अस्तित्व तो रहता ही है उस अर्थ के रूप में । यही हाल किसी जाति के विकास का है । जब प्रयोजन को सामने रखते हैं तो अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। उसी तरह जीवन के अनुभवों में से चुन कर, अपने अभिप्राय के अनुसार , एक क्रम से सजाना होगा , तभी एक पूर्ण तथा स्पष्ट चित्र उभर सकेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आर्य- जीवन -दर्शन को स्पष्ट करने के लिए इसी पद्धति को अपनाना उचित समझा गया है। साथ ही हमारा उद्देश्य उपवन लगाना है , जंगल नहीं। हमें सोने का अलंकार पहनना है , सोने की सिल्ली गले में लटकाना नहीं चाहते। 

जो कुछ भी है वह सब प्रभु - प्रेरणा है , शाश्वत रूप में वही कर्माध्यक्ष है। यश- अ यश उसी का है ; अपना कुछ भी नहीं है। ईश्वर को अंतर और बाहर उपस्थित जानकर ही व्यवहार किया जा सकता है । महर्षि व्यास के शब्दों में -- " सर्व: सर्वां न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चन । नैकत्र परिनिष्ठास्ति ज्ञानस्य पुरुषे क्वचित॥ "****


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