रविवार, 17 नवंबर 2013

राजस्थान भ्रमण



राजस्थान भ्रमण  


7 नवम्बर से 14 नवम्बर 2013 तक

भारत के राजस्थान राज्य में अरावली श्रेणी की घाटी में अजमेर नगर से पाँच मील पश्चिम अजमेर जिले का एक नगर तथा स्थानीय मंडी है। इसके निकटवर्ती क्षेत्र में ज्वार, बाजरा, मक्का, गेहूँ तथा गन्ने की उपज होती है। कलापूर्ण कुटीर-वस्त्र-उद्योग, काष्ठ चित्रकला, तथा पशुओं के व्यापार के लिए यह विख्यात है। यहाँ पवित्र पुष्कर झील है तथा समीप में ब्रह्मा जी का पवित्र मंदिर है, जिससे प्रति वर्ष अनेक तीर्थयात्री यहाँ आते हैं। अक्टूबर, नवंबर के महीनों में यहाँ एक विशेष धार्मिक एवं व्यापारिक महत्व का मेला लगता है। इसका धार्मिक महत्व अधिक है। यह सागरतल से २,३८९ फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जो औरंगजेब द्वारा ध्वस्त करने के बाद पुन: निर्मित किए गए हैं।

पुष्कर के उद्भव का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है। कहा जाता है, ब्रह्मा ने यहाँ आकर यज्ञ किया था। हिंदुओं के प्रमुख तीर्थस्थानों में पुष्कर ही एक ऐसी जगह है जहाँ ब्रह्मा का मंदिर स्थापित है। ब्रह्मा के मंदिर के अतिरिक्त यहाँ सावित्री, बदरीनारायण, वाराह और शिव आत्मेश्वर के मंदिर है, किंतु वे आधुनिक हैं। यहाँ के प्राचीन मंदिरों को मुगल सम्राट् औरंगजेब ने नष्टभ्रष्ट कर दिया था। पुष्कर झील के तट पर जगह-जगह पक्के घाट बने हैं जो राजपूताना के देशी राज्यों के धनीमानी व्यक्तियों द्वारा बनाए गए हैं।
पुष्कर का उल्लेख रामायण में भी हुआ है। सर्ग ६२ श्लोक २८ में विश्वामित्र के यहाँ तप करने की बात कही गई है। सर्ग ६३ श्लोक १५ के अनुसार मेनका यहाँ के पावन जल में स्नान के लिए आई थीं।

साँची स्तूप दानलेखों में, जिनका समय ई. पू. दूसरी शताबदी है, कई बौद्ध भिक्षुओं के दान का वर्णन मिलता है जो पुष्कर में निवास करते थे। पांडुलेन गुफा के लेख में, जो ई. सन् १२५ का माना जाता है, उषमदवत्त का नाम आता है। यह विख्यात राजानहपाण का दामाद था और इसने पुष्कर आकर ३००० गायों एवं एक गाँव का दान किया था।

इन लेखों से पता चलता है कि ई. सन् के आरंभ से या उसके पहले से पुष्कर तीर्थस्थान के लिए विख्यात था। स्वयं पुष्कर में भी कई प्राचीन लेख मिले है जिनमें सबसे प्राचीन लगभग ९२५ ई. सन् का माना जाता है। यह लेख भी पुष्कर से प्राप्त हुआ था और इसका समय १०१० ई. सन् के आसपास माना जाता है।


पुष्कर मेला


अजमेर से ११ कि.मी. दूर हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पुष्कर है। यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक भी आते हैं। हजारों हिन्दु लोग इस मेले में आते हैं। व अपने को पवित्र करने के लिए पुष्कर झील में स्नान करते हैं। भक्तगण एवं पर्यटक श्री रंग जी एवं अन्य मंदिरों के दर्शन कर आत्मिक लाभ प्राप्त करते हैं।

राज्य प्रशासन भी इस मेले को विशेष महत्व देता है। स्थानीय प्रशासन इस मेले की व्यवस्था करता है एवं कला संस्कृति तथा पर्यटन विभाग इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयाजन करते हैं।
इस समय यहां पर पशु मेला भी आयोजित किया जाता है, जिसमें पशुओं से संबंधित विभिन्न कार्यक्रम भी किए जाते हैं, जिसमें श्रेष्ठ नस्ल के पशुओं को पुरस्कृत किया जाता है। इस पशु मेले का मुख्य आकर्षण होता है।
भारत में किसी पौराणिक स्थल पर आम तौर पर जिस संख्या में पर्यटक आते हैं, पुष्कर में आने वाले पर्यटकों की संख्या उससे कहीं ज्यादा है। इनमें बडी संख्या विदेशी सैलानियों की है, जिन्हें पुष्कर खास तौर पर पसंद है। हर साल कार्तिक महीने में लगने वाले पुष्कर ऊंट मेले ने तो इस जगह को दुनिया भर में अलग ही पहचान दे दी है। मेले के समय पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन सा देखने को मिलता है। एक तरफ तो मेला देखने के लिए विदेशी सैलानी पडी संख्या में पहुंचते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाकों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं। मेला रेत के विशाल मैदान में लगाया जाता है। ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने-पीने के स्टाल, सर्कस, झूले और न जाने क्या-क्या। ऊंट मेला और रेगिस्तान की नजदीकी है इसलिए ऊंट तो हर तरफ देखने को मिलते ही हैं। लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप विशाल पशु मेले का हो गया है।

पुष्कर का ब्रह्मा मन्दिर

पुष्कर को तीर्थों का मुख माना जाता है। जिस प्रकारप्रयाग को "तीर्थराज" कहा जाता है, उसी प्रकार से इस तीर्थ को "पुष्करराज" कहा जाता है। पुष्कर की गणना पंचतीर्थों व पंच सरोवरों में की जाती है। पुष्कर सरोवर तीन हैं -

ज्येष्ठ (प्रधान) पुष्कर
मध्य (बूढ़ा) पुष्कर
कनिष्क पुष्कर।

ज्येष्ठ पुष्कर के देवता ब्रह्माजी, मध्य पुष्कर के देवता भगवान विष्णु और कनिष्क पुष्कर के देवता रुद्र हैं। पुष्कर का मुख्य मन्दिर ब्रह्माजी का मन्दिर है। जो कि पुष्कर सरोवर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। मन्दिर में चतुर्मुख ब्रह्मा जी की दाहिनी ओर सावित्री एवं बायीं ओर गायत्री का मन्दिर है। पास में ही एक और सनकादि की मूर्तियाँ हैं, तो एक छोटे से मन्दिर में नारद जी की मूर्ति। एक मन्दिर में हाथी पर बैठे कुबेर तथा नारद की मूर्तियाँ हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लिखित है कि अपने मानस पुत्र नारद द्वारा सृष्टिकर्म करने से इन्कार किए जाने पर ब्रह्मा ने उन्हें रोषपूर्वक शाप दे दिया कि—"तुमने मेरी आज्ञा की अवहेलना की है, अतः मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जाएगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्त करके कामिनियों के वशीभूत हो जाओगे।" तब नारद ने भी दुःखी पिता ब्रह्मा को शाप दिया—"तात! आपने बिना किसी कारण के सोचे - विचारे मुझे शाप दिया है। अतः मैं भी आपको शाप देता हूँ कि तीन कल्पों तक लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मंत्र, श्लोक कवच आदि का लोप हो जाएगा।" तभी से ब्रह्मा जी की पूजा नहीं होती है। मात्र पुष्कर क्षेत्र में ही वर्ष में एक बार उनकी पूजा–अर्चना होती है।

पूरे भारत में केवल एक यही ब्रह्मा का मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण ग्वालियर के महाजन गोकुल प्राक् ने अजमेर में करवाया था। ब्रह्मा मन्दिर की लाट लाल रंग की है तथा इसमें ब्रह्मा के वाहन हंस की आकृतियाँ हैं। चतुर्मुखी ब्रह्मा देवी गायत्री तथा सावित्री यहाँ मूर्तिरूप में विद्यमान हैं। हिन्दुओं के लिए पुष्कर एक पवित्र तीर्थ व महान पवित्र स्थल है।

वर्तमान समय में इसकी देख–रेख की व्यवस्था सरकार ने सम्भाल रखी है। अतः तीर्थस्थल की स्वच्छता बनाए रखने में भी काफ़ी मदद मिली है। यात्रियों की आवास व्यवस्था का विशेष ध्यान रखा जाता है। हर तीर्थयात्री, जो यहाँ आता है, यहाँ की पवित्रता और सौंदर्य की मन में एक याद संजोए जाता है।

तीर्थगुरु पुष्कर : सब तीर्थों का गुरु
नाग पहाड़ के बीच बसा ऋषियों का तपस्या स्थल

सृष्टि के रचियता ब्रह्मा की यज्ञस्थली और ऋषियों की तपस्यास्थली तीर्थगुरु पुष्कर नाग पहाड़ के बीच बसा हुआ है। यहाँ प्रति वर्ष विश्वविख्यात कार्तिक मेला लगताहै। सर्वधर्म समभाव की नगरी अजमेर से उत्तर-पश्चिम में करीब 11 किलोमीटर दूर पुष्कर में अगस्तय, वामदेव, जमदाग्नि, भर्तृहरि इत्यादि ऋषियों के तपस्या स्थल के रूप में उनकी गुफाएँ आज भी नाग पहाड़ में हैं।

ब्रह्माजी ने पुष्कर में कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक यज्ञ किया था, जिसकी स्मृति में अनादि काल से यहाँ कार्तिक मेला लगता आ रहा है। पुष्कर के मुख्य बाजार के अंतिम छोर पर ब्रह्माजी का मंदिर बना है। आदि शंकराचार्य ने संवत्‌ 713 में ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना की थी। मंदिर का वर्तमान स्वरूप गोकलचंद पारेख ने 1809 ईं.में बनवाया था।

यह मंदिर विश्व में ब्रह्माजी का एकमात्र प्राचीन मंदिर है। मंदिर के पीछे रत्नागिरि पहाड़ पर जमीन तल से दो हजार तीन सौ 69 फुट की ऊँचाई पर ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री का मंदिर है। यज्ञ में शामिल नहीं किए जाने से कुपित होकर सावित्री ने केवल पुष्कर में ब्रह्माजी की पूजा किए जाने का श्राप दिया था।

तीर्थराज पुष्कर को सब तीर्थों का गुरु कहा जाता है। इसे धर्मशास्त्रों में पाँच तीर्थों में सर्वाधिक पवित्र माना गया है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गया, हरिद्वार और प्रयाग को पंचतीर्थ कहा गया है। अर्द्ध चंद्राकार आकृति में बनी पवित्र एवं पौराणिक पुष्कर झील धार्मिक और आध्यात्मिक आकर्षण का केंद्र रही है।

झील की उत्पत्ति के बारे में किंवदंती है कि ब्रह्माजी के हाथ से यहीं पर कमल पुष्प गिरने से जल प्रस्फुटित हुआ जिससे इस झील का उद्भव हुआ। यह मान्यता भी है कि इस झील में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है। झील के चारों ओर 52 घाट व अनेक मंदिर बने हैं। इनमें गऊघाट, वराहघाट, ब्रह्मघाट, जयपुर घाट प्रमुख हैं। जयपुर घाट से सूर्यास्त का नजारा अत्यंत अद्भुत लगता है।

विदेशी पर्यटकों को यह दृश्य बेहद भाता है। झील के बीचोंबीच छतरी बनी है। महाभारत के वन पर्व के अनुसार योगीराज श्रीकृष्ण ने पुष्कर में दीर्घकाल तक तपस्या की थी। सुभद्रा के अपहरण के बाद अर्जुन ने पुष्कर में विश्राम किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी अपने पिता दशरथ का श्राद्ध पुष्कर में किया था।

पुष्कर के महत्व का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि सभी धर्मो के देवी-देवताओं का यहाँ आगमन रहा है। जैन धर्म की मातेश्वरी पद्मावती का पद्मावतीपुरम यहाँ जमींदोज हो चुका है जिसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं। इसके साथ ही सिख समाज का गुरुद्वारा भी विशाल स्तर पर बनाया गया है। नए रंगजी और पुराना रंगजी का मंदिर भी आकर्षण का केंद्र है। जगतगुरु रामचन्द्राचार्य का श्रीरणछोड़ मंदिर, निम्बार्क सम्प्रदाय का परशुराम मंदिर, महाप्रभु की बैठक, जोधपुर के बाईजी का बिहारी मंदिर, तुलसी मानस व नवखंडीय मंदिर, गायत्री शक्तिपीठ, जैन मंदिर, गुरुद्वारा आदि दर्शनीय स्थल हैं।

पुष्कर में गुलाब की खेती भी विश्वप्रसिद्ध है। यहाँ का गुलाब तथा पुष्प से बनी गुलकंद, गुलाब जल इत्यादि का निर्यात किया जाता है। अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की पवित्र मजार पर चढ़ाने के लिए रोजाना कई क्विंटल गुलाब भेजा जाता है।
तीर्थराज पुष्कर, ऋषि मुनि, पंचतीर्थ, कार्तिक शुक्ल एकादशी, पूर्णमासी

अजमेर भारतीय राज्य राजस्थान का एक जिला है

राजस्थान राज्य का हृदयस्थल अजमेर जिला राजस्थान राज्य के मध्य में 25 डिग्री 38’ से 26 डिग्री 50’ उतरी अक्षांश एवं 73 डिग्री 54’ से 75 डिग्री 22’ पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित हैं। अजमेर उत्तर-पश्चिमी रेल्वे के दिल्ली-अहमदाबाद मार्ग पर स्थित हैं जो जयपुर के दक्षिण-पश्चिम में लगभग 135 किमी. की दूरी पर स्थित हैं। अजमेर तारागढ़ की पहाड़ी, जिसके शिखर पर क़िला है, निचली ढलानों पर यह शहर स्थित है। पर्वतीय क्षेत्र में बसा अजमेर अरावली पर्वतमाला का एक हिस्सा है, जिसके दक्षिण-पश्चिम में लूनी व पूर्वी हिस्से में बनास की सहायक नदियाँ बहती हैं। मुग़लों की बेगम और शहजादियाँ यहाँ अपना समय व्यतीत करती थी। इस क्षेत्र को इत्र के लिए प्रसिद्ध बनाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था। कहा जाता है कि नुरजहाँ ने गुलाब के इत्र को ईजाद किया था। कुछ लोगों का मानना है यह इत्र नूरजहाँ की माँ ने ईजाद किया था। अजमेर में पान की खेती भी होती है। इसकी महक और स्वाद गुलाब जैसी होती है।


 माउंट आबू  

समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश  भारत
राज्य
राजस्थान
ज़िला
सिरोही
क्षेत्रफल
• ऊँचाई (AMSL)
• 1,200 मीटर (3,937 फी॰)

 माउंट आबूराजस्थान का एकमात्र पहाड़ी नगर है। सिरोही जिले में स्थितनीलगिरि की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसे माउंट आबू की भौगोलिक स्थित और वातावरण राजस्थान के अन्य शहरों से भिन्न व मनोरम है। यह स्थान राज्य के अन्य हिस्सों की तरह गर्म नहीं है। माउंट आबू हिन्दू और जैन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है। यहां का ऐतिहासिक मंदिर और प्राकृतिक खूबसूरती सैलानियों को अपनी ओर खींचती है। माउंट आबू पहले चौहान साम्राज्य का हिस्सा था। बाद में सिरोही के महाराजा ने माउंट आबू कोराजपूताना मुख्यालय के लिए अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान माउंट आबू मैदानी इलाकों की गर्मियों से बचने के लिए अंग्रेजों का पसंदीदा स्थान था।

इतिहास 
माउंट आबू प्राचीन काल से ही साधु संतों का निवास स्थान रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार हिन्दू धर्म के तैंतीस करोड़ देवी देवता इस पवित्र पर्वत पर भ्रमण करते हैं। कहा जाता है कि महान संत वशिष्ठ ने पृथ्वी से असुरों के विनाश के लिए यहां यज्ञ का आयोजन किया था। जैन धर्म के चौबीसवें र्तीथकर भगवान महावीर भी यहां आए थे। उसके बाद से माउंट आबू जैन अनुयायियों के लिए एक पवित्र और पूजनीय तीर्थस्थल बना हुआ है। [1] एक कहावत के अनुसार आबू नाम हिमालय के पुत्र आरबुआदा के नाम पर पड़ा था। आरबुआदा एक शक्तिशाली सर्प था, जिसने एक गहरी खाई में भगवान शिव के पवित्र वाहन नंदी बैल की जान बचाई थी।[2]
दर्शनीय स्थल


माउंट आबू में सूर्यास्त 

प्राकृतिक सुषमा और विभोर करनेवाली वनस्थली का पर्वतीय स्थल 'आबू पर्वत' ग्रीष्मकालीन पर्वतीय आवास स्थल और पश्चिमी भारत का प्रमुख पर्यटन केंद्र रहा है। यह स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के साथ एक परिपूर्ण पौराणिक परिवेश भी है। यहाँ वास्तुकला का हस्ताक्षरित कलात्मकता भी दृष्टव्य है।[3] आबू का आकर्षण है कि आए दिन मेला, हर समय सैलानियों की हलचल चाहे शरद हो या ग्रीष्म। दिलवाड़ा मंदिर यहाँ के प्रमुख आकर्षण हैं। माउंट आबू से १५ किमी.दूर गुरु शिखर पर स्थित इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ था। यह शानदार मंदिर जैन धर्म के र्तीथकरों को समर्पित हैं। दिलवाड़ा के मंदिर और मूर्तियाँ भारतीय स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। दिलवाड़ा के मंदिरों से ८ किमी. उत्तर पूर्व में अचलगढ़ किला व मंदिरतथा १५ किमी.दूर अरावली पर्वत शृंखला की सबसे ऊँची चोटी गुरु शिखर स्थित हैं। इसके अतिरिक्त माउंट आबू में नक्की झील, गोमुख मंदिर, माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य आदि भी दर्शनीय हैं।

आवागमन- माउंट आबू से निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर यहाँ से १८५ किमी. दूर है। उदयपुर से माउंट आबू पहुँचने के लिए बस या टैक्सी की सेवाएँ ली जा सकती हैं। समीपस्थ रेलवे स्टेशन आबू रोड २८ किमी. की दूरी पर है जो अहमदाबाद, दिल्ली,जयपुर और जोधपुर से जुड़ा है। माउंट आबू देश के सभी प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा भी जुड़ा है। दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे से माउंट आबू के लिए सीधी बस सेवा है। राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम की बसें दिल्ली के अलावा अनेक शहरों से माउंट आबू के लिए अपनी सेवाएँ उपलब्ध कराती हैं।

चित्तौड़गढ़ किला

एक भव्य और शानदार संरचना है जो चित्तौड़गढ़ के शानदार इतिहास को बताता है।यह इस शहर का प्रमुख पर्यटन स्थल है। एक लोककथा के अनुसार इस किले का निर्माण मौर्य ने 7 वीं शताब्दी के दौरान किया था। यह शानदार संरचना 180 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है और लगभग 700 एकड के कषेत्र में फ़ैली हुई है। यह वास्तुकला प्रवीणता का एक प्रतीक है जो कई विध्वंसों के बाद भी बचा हुआ है।

किले तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं है; आपको किले तक पहुँचने के लिए एक खड़े और घुमावदार मार्ग से एक मील चलना होगा। इस किले में सात नुकीले लोहे के दरवाज़े हैं जिनके नाम हिंदू देवताओं के नाम पर पड़े। इस किले में कई सुंदर मंदिरों के साथ साथ रानी पद्मिनी और महाराणा कुम्भ के शानदार महल हैं।किले में कई जल निकाय हैं जिन्हें वर्षा या प्राकृतिक जलग्रहों से पानी मिलता रहता है।

हल्दीघाटी का युद्ध 


युद्ध बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य 

दिनांक 18 जून, 1576 ई.
स्थान हल्दीघाटी (राजस्थान)

परिणाम ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे
संबंधित लेख राजा मानसिंह, झाला मान,उदयपुर, चेतक
अन्य जानकारी 'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी।

हल्दीघाटी का युद्ध मुग़ल बाद
शाह अकबर औरमहाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था। अकबर और राणा के बीच यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से सन्धि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाईयाँ लड़ते रहे।

मुग़ल आक्रमण

उदयसिंह वर्ष 1541 ई. में मेवाड़ के राणा हुए थे, जब कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। मुग़ल सेना ने आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, लेकिन राणा उदयसिंह ने अकबर अधीनता स्वीकार नहीं की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब उन्हें लगा कि चित्तौड़गढ़ अब नहीं बचेगा, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ को 'जयमल' और 'पत्ता' आदि वीरों के हाथ में छोड़ दिया और स्व्यं अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक 'उदयसागर' नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद ही उदयसिंह का देहांत हो गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और मुग़ल अधीनता स्वीकार नहीं की।


युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप केचेतक (घोड़े) की मौत

'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर नेमेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर केराजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबरने कुम्भलमेर दुर्ग से महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये, किंतु प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की। युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक नहीं हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति अधिक थी।


राजपूतों की वीरता

युद्ध में 'सलीम' (बाद में जहाँगीर) पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी राणा को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसते ही चले जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर झाला सरदार मन्नाजी ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।


मन्नाजी का बलिदान

झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और उसने राणा प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया। वह तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े। राणा प्रताप जो कि इस समय तक बहुत बुरी तरह घायल हो चुके थे, उन्हें युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्ध भूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्ध भूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्ध भूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।

इस प्रकार हल्दीघाटी के इस भयंकर युद्ध में बड़ी सादड़ी के जुझारू झाला सरदार मान या मन्नाजी ने राणा की पाग (पगड़ी) लेकर उनका शीश बचाया। राणा अपने बहादुर सरदार का जुझारूपन कभी नहीं भूल सके। इसी युद्ध में राणा का प्राणप्रिय घोड़ा चेतक अपने स्वामी की रक्षा करते हुए शहीद हो गया और इसी युद्ध में उनका अपना बागी भाई शक्तिसिंह भी उनसे आ मिला और उनकी रक्षा में उसका भाई-प्रेम उजागर हो उठा था। अंत में सन 1542 के बाद अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगे रहने के कारण प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया।

उदयपुर के पर्यटन स्थल 


उदयपुर को पहले मेवाड़ के नाम से जाना जाता था। इस शहर ने बहुत कम समय में देश को कई देशभक्तड दिए हैं। यहां का मेवाड़ राजवंश अपने को सूर्य से जोड़ता है। यहां का इतिहास निरंतर संघर्ष का इतिहास रहा है। यह संघर्ष स्वंतंत्रता, स्वासभिमान तथा धर्म के लिए हुआ। संघर्ष कभी राजपूतों के बीच तो कभी मुगल तथा अन्य् शासकों के साथ हुआ। यहां जैसी देशभक्‍ित, उदार व्यधवहार तथा स्व्तंत्रता के लिए उत्कृ ष्ट इच्छा् किसी दूसरे जगह देखने को नहीं मिलती है।

उदयपुर जिसे झीलों का शहर कहा जाता है उत्तरी भारत का सबसे आकर्षक पर्यटक शहर माना जाता है। यहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए बहुत कुछ है। झीलों के साथ मरुभूमि का अनोखा संगम अन्यम कहीं नहीं देखने को मिलता है। यह शहर अरावली पहाडी के पास राजस्था न में स्थित है। उदयपुर को हाल ही में विश्व का सबसे खूब सूरत शहर घोषित किया गया है उदयपुर की पोर्टल वेबसाइट है वेब उदयपुर इस वेबसाइट में उदयपुर के बारे में हर तरह की जानकारिया उपलब्ध है ! सभी पर्यटन स्थलों का विस्तृत वर्णन है इस का पता है 

उदयपुर : झीलों का शहर
मंत्रमुग्ध हो जाते हैं पर्यटक

राजस्थान का एक शहर उदयपुरप्रकृति एवं मानवीय रचनाओं से समृद्ध अपने सौंदर्य के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। यहां की हवेलियों और महलों की भव्यता को देखकर दुनिया भर के पर्यटक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। यहां के लोग, उनका व्यवहार, यहां की संस्कृति, लोक गीत, लोक-नृत्य, पहनावे, उत्सव एवं त्योहारों में ऐसा आकर्षण है कि देशी-विदेशी पर्यटक, फोटोग्राफर, लेखक, फिल्मकार, कलाकर, व्यावसायी सभी यहां खिंचे चले आते हैं। 

अपनी पुरानी राजधानी चित्तौड़गढ़ पर मुगलों के लगातार आक्रमण से परेशान होकर महाराणा उदय सिंह ने पिछौला झील के तट पर अपनी राजधानी बनाई जिसे उदयपुर नाम दिया गया। 

शानदार बाग-बगीचे, झीलें, संगमरमर के महल, हवेलियां आदि इस शहर की शान में चार चांद लगाते हैं। अरावली की पहाड़ियों से घीरे और पांच मुख्य झीलों के इस शहर को देखने या घुमने-फिरने के लिए उत्तम समय वैसे तो सितंबर से अप्रैल का महीना उत्तम है। 

पिछौला झील के पूर्वी किनारे पर बने विशालकाय और भव्य सिटी पैलेस की परछाई से मन रोमांचित हो उठता है। यह महल राजस्थान का विशालतम महल है। इस परिसर के तीन महल-दिलखुश, बारी व माती तथा सूरज गोखुर, मोर चौक है। 

ND
पवित्र धूनी माता व राणा प्रताप का संग्रहालय भी इस परिसर के दर्शनीय स्थल हैं। इसके अतिरिक्त सिटी पैलेस के नजदीक ही भव्य जगदीश मंदिर भी है। इस मंदिर के नजदीक ही अठारहवीं सदी में बना सहेलियों का बाग है। 

इसके अतिरिक्त फतेह सागर झील, कृष्णा विलास, दूध तलाई, सज्जन निवास, गुलाब बाग, जग मंदिर, सज्जनगढ़ महल, कुंभागढ़ का किला, रनकपुर का जैन मंदिर और भारतीय लोक कला संग्रहालय हैं। 

उदयपुर में प्रमुख आकर्षण का केंद्र लेक पैलेस है जो सन 1743-1746 के मध्य बनाया गया था। इसे देखकर लगता है मानो यह महल पिछौला झील में तैर रहा है। 

कैसे पहुंचें : 
राज्य की राजधानी जयपुर से उदयपुर की दूरी लगभग 400 किमी दूर है। जबकि दिल्ली से यह लगभग 665 किमी और अहमदाबाद से 250 किमी है। 

यहां आने वाले पर्यटकों के लिए हवाई मार्ग से लेकर सड़क और रेल जैसे किसी भी मार्ग से आने में कोई परेशानी नहीं है। शहर में होटलों और रेस्तरां आदि की भी कोई कमी नहीं है।

पूर्व का वेनिस और भारत का दूसरा काश्मीर माना जाने वाला उदयपुर खूबसूरत वादियों से घिरा हुआ हैं। अपनी नैसर्गिंक सौन्दर्य सुषमा से भरपूर झीलों की यह नगरी सहज ही पर्यटकों को अपनी और आकर्षित कर लेती है। यहाँ की खूबसूरत वादियाँ, पर्वतों पर बिखरी हरियाली, झीलों का नजारा और बलखाती सडके बरबस ही सैलानियों को अपनी ओर खींच लेती हैं। महाराणा उदयसिंह ने सन् 1559 में उदयपुर नगर की स्थपना की। लगातार मुगलों के आक्रमणों से सुरक्षित स्थान पर राजधानी स्थानान्तरित किये जाने की योजना से इस नगर की स्थापना हुई। सन्1572 में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र प्रताप का राज्याभिषक हुआ। उन दिनों एक मात्र यहीं ऐसे शासक थे जिन्होंने मुगलों की अधीनता नहीं स्वीकारी थी। महाराणा प्रताप एवं मुगल सम्राट अकबर के बीच हुआ हल्दीघाटी का घमासान युद्ध मातृभूमि की रक्षा के लिए इतिहास प्रसिद्ध हैं। यह युद्ध किसी धर्म, जाति अथवा साम्राज्य विस्तार की भावना से नहीं, बल्कि स्वाभिमान एवं मातृभूमि के गौरव की रक्षा के लिए ही हुआ।
देश के आजाद होने से पूर्व रियासती जमाने में गुहिल वंश के अंतिम शासक महाराणा भोपाल सिंह थे जो राजस्थान के एकीकरण के समय 30 मार्च, 1949 में राज्य के महाराज प्रमुख रहे।


जयपुर 


जयपुर  जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर केमहाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। [यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्सयुवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है।
शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो न्यू गेट कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट(३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं, और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुरभी हैं।[4]
जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। शहर के वास्तुकारविद्याधर भट्टाचार्य का नाम आज भी प्रसिद्ध है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों मेंधातुसंगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन आदि शामिल हैं। जयपुर को भारतका पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर की वास्तु के बारे में कहा जाता है , कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नही मिलेगा।
सत्रहवीं शताब्दी मे जब मुगल अपनी ताकत खोने लगे,तो समूचे भारत में अराजकता सिर उठाने लगी,ऐसे दौर में राजपूताना कीआमेर रियासत,एक बडी ताकत के रूप में उभरी.जाहिर है कि महाराजा सवाई जयसिंह को तब मीलों के दायरे में फ़ैली अपनीरियासत संभालने और सुचारु राजकाज संचालन के लिये आमेर छोटा लगने लगा,और इस तरह से इस नई राजधानी के रूप में जयपुर की कल्पना की गई, और बडी तैयारियों के साथ इस कल्पना को साकार रूप देने की शुरुआत हुई. इस शहर की नींवकहां रखी गई,इसके बारे मे मतभेद हैं,किंतु इतिहासकारों के अनुसार तालकटोरा के निकट स्थित शिकार की होदी से इस शहर के निर्माण की शुरुआत हुई।
राजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने यह शहर बसाने से पहले इसकी सुरक्षा की भी काफी चिंता की थी और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही सात मजबूत दरवाजों के साथ किलाबंदी की गई थी। जयसिंह ने हालाँकि मराठों के हमलों की चिंता से अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए चारदीवारी बनवाई थी, लेकिन उन्हें शायद मौजूदा समय की सुरक्षा समस्याओं का भान नहीं था। इतिहास की पुस्तकों में जयपुर के इतिहास के अनुसार यह देश का पहला पूरी योजना से बनाया गया शहर था और स्थापना के समय राजा जयसिंह ने अपनी राजधानी आमेर में बढ़ती आबादी और पानी की समस्या को ध्यान में रखकर ही इसका विकास किया था। नगर के निर्माण का काम १७२७ में शुरू हुआ और प्रमुख स्थानों के बनने में करीब चार साल लगे। यह शहर नौ खंडों में विभाजित किया गया था, जिसमें दो खंडों में राजकीय इमारतें और राजमहलों को बसाया गया था। प्राचीन भारतीय शिल्पशास्त्र के आधार पर निर्मित इस नगर के प्रमुख वास्तुविद थे एक बंगाली ब्राह्मण विद्याधर भट्टाचार्य, जो आमेर दरबार में आरम्भ में महज़ एक लेखा-लिपिक थे, पर उनकी वास्तुकला में गहरी दिलचस्पी और असाधारण योग्यता से प्रभावित हो कर महाराजा ने उन्हें नै राजधानी के लिए नए नगर की योजना बनाने का निर्देश दिया ।
यह शहर प्रारंभ से ही 'गुलाबी' नगर नहीं था बल्कि अन्य सामान्य नगरों की ही तरह था, लेकिन 1876 में जब वेल्स के राजकुमार आए तो महाराजा रामसिंह के आदेश से पूरे शहर को गुलाबी रंग से रंग जादुई आकर्षण प्रदान करने की कोशिश की गई थी। उसी के बाद से यह शहर 'गुलाबी नगरी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सुंदर भवनों के आकर्षक स्थापत्य वाले, दो सौ वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैले जयपुर में जलमहल, जंतर-मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला, हवामहल और आमेर का किला राजपूतों के वास्तुशिल्प के बेजोड़ नमूने हैं।
यात्रा-विवरण 


7 नवम्बर को हमारी ट्रेन प्रात: 6बजे की  नयी दिल्ली से अजमेर शताब्दी थी।  हमें रात भर अच्छी तरह नींद भी नहीं आ सकी , जाने की उत्सुकता एवं चिंता बनी रही।  रात को ही मुझे 2 बजे बीनाजी ने उठा दिया।  नित्यकर्म एवं स्नान आदि के बाद 3 . 30 पर तैयार हो गये।  इसके बाद फोन बजने शुरू हो गये।  इंतजार होने लगी , गुरूजी को फोन किया तो विदित हुवा कि 4 बजे के लगभग पहुँच जायेंगे। रास्ते से अन्य सभी को लेना था।  सभी कविनगर से ही जाने वाले थे।  गुरु श्री विनोद गुप्ताजी एम् ब्लाक  के यहाँ बस आ गयी थी।  बस जे ब्लाक से श्री राजेन्द्र अग्रवाल , आई ब्लाक से श्री सुशील गुप्ता एवं श्री आर के बंसल एच ब्लाक से मुझे अर्थात सूर्य प्रकाश विद्यालंकार तथा अंत में ऍफ़ ब्लाक से श्री अशोक शास्त्री को लेकर बस दिल्ली की ओर चल पड़ी।  इस प्रकार हम 6 परिवार थे।  सभी की पत्नियां साथ थीं।  दिल में अत्यधिक उत्साह था।

इससे पूर्व हम सभी के भ्रमण कार्यक्रम गुजरात - द्वारिका , केरल -कन्या कुमारी , मैसूर -ऊटी , पोर्ट ब्लेयर -गंगा सागर आदि के भी बन चुके थे।  सभी कार्यक्रम बहुत ही अच्छे रहे।  यह कार्यक्रम विशेष रूप से राजस्थान का ही बनाया गया था।  इसमें अजमेर , पुष्कर , माउन्ट आबू , उदयपुर , जयपर आदि जाने को प्रोग्राम था।

हम सब दिल्ली की ओर चल पड़े , रास्ते में चिंता भी थी कि कहीं देर न हो जाये और कहीं गाड़ी न छूट जाये।  हम लोग 4. 30 पर चल पड़े। रास्ता साफ़ था , प्रात:काल होने के कारण इतनी भीड़ भी नहीं थी।  स्टेशन पर हमें गाड़ी ने 5 . 30 के लगभग छोड़ दिया।  वहाँ कुली से थोड़ी बहस -हुज्जत के बाद कुली ने ठेला ले लिया , पर हमारा प्लेटफार्म काफी दूर पर था।  दो लोग कुली के साथ चल पड़े एवं शेष पुल को पार करते हुवे जल्दी-जल्दी चल पड़े।  सभी हम सीनीयर सिटीजंस थे , इस लिए चलने में परेशानी हो रही थी।  एकतरह से दौड़ना ही पड़ रहा था।  खैर जैसे-तैसे प्लेटफार्म पर ही पहुँच गए।  थोड़ी देर में ट्रेन भी आ गयी।  यह तो अच्छा ही था कुली को डिब्बे में सामान रखने के लिए तैयार कर लिया था।  गाड़ी दिल्ली से ही चलती थी अत: सभी को यहीं से ही बैठना था।  भीड़ का होना स्वाभाविक था। हम सभी अपनी- अपनी सीट नंबर को देख कर बैठ गए।  थोड़ी देर में ट्रेन चल पड़ी।  सब ने चैन की सांस ली।  हम सभी को एक संतोष और ख़ुशी का आभास हो रहा था।

पहले ट्रेन धीमे- धीमे चल रही थी।  बाद में दिल्ली कैंट के पार होते ही ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली।  ट्रेन में सभी की सीट रिजर्व थी।  अलग -अलग सीट और आरामदायक थी।  थोड़ी देर बाद चाय आ गयी चाय के साथ बिस्कुट आदि थे।  आनंद आ रहा था।  चाय की चुस्की लेते हुवे यात्रा कर रहे थे।  हम 6 की सीट एक साथ थी।  इन सीटों पर सूर्य प्रकाश विद्यालंकार एवं श्रीमती बीना गर्ग , श्री सुशील गुप्ता - श्रीमती मृदुला गुप्ता , श्री अशोक शास्त्री - श्रीमती उषा थे।  आगे की अलग सीटों पर श्री विनोद गुप्ता - श्रीमती इंदु तथा श्री राजेन्द्र अग्रवाल - श्रीमति अंजू बैठे हुवे थे।  अलग डिब्बे में श्री राम कुमार बंसल - श्रीमती सुशीला थे। इसप्रकार 6 दम्पति अर्थात 12 जन थे।

गाड़ी गुड़गांव , मानेसर , रिवाड़ी, अलवर , राजगढ़ होते हुवे जयपुर की ओर चल रही थी।  रिवाड़ी के पास नाश्ता आ गया।  दामादों की तरह सेवा हो रही थी , नाश्ते में छोले -कुलचे , चाय आदि थी।  सब कुछ बहुत अच्छा था।  आनंद आ रहा था।  दिल में शकून था।  कुछ तो सोने लगे थे।  मुझे तो गाड़ी में जल्दी से नींद नहीं आती।  मैं तो बाहर के सभी प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाता जा था था।  बहुत अच्छा लग रहा था।  कुछ देर बाद जयपुर आ गया।  जयपुर में ट्रेन काफी देर रुकी।  लगभग दस बज रहे थे।  इसके बाद ट्रेन अजमेर कि ओर चल पड़ी। ट्रेन लगभग 12. 50 पर अजमेर पहुँच गयी।

अजमेर स्टेशन पर बाहर आते ही हमारे लिए एक वातानुकूलित बस तैयार खड़ी थी। इसमें 12 लोगों के बैठने की व्यवस्था थी।  सब यथास्थान बैठ गये।  निश्चय हुवा कि पहले अजमेर में जैन मंदिर सोनी नैसिया
देखी जाये।वहाँ जाकर देखा तो अत्यधिक आश्चर्य हुवा कि इतने सोने के छत्र एवं मूर्त्तियां थीं कि आँखें फटी-सी रह गयीं।  भारत में श्रद्धा का भी अजब खेल है , कहीं सोना ही सोना और कहीं सोने की भी जगह नहीं है। मंदिर में संकरी सीढ़ियां थीं और वह भवन तिमंजिला था।  चढ़ने में थकान महसूस होने लगी थी। पर कुछ देर बाद हम नीचे आ गये।

इसके बाद हमने वहाँ के प्रसिद्ध ढाबे ' गुड्डन ' में खाना


खाया।  वहाँ भीड़ बहुत थी , काफी इंतजार के बाद खाने का नम्बर आया।  भूख बहुत लग रही थी , वैसे भी होटल में जाकर तथा औरों का खाता हुवा देखकर भूख भी अधिक चमक जाती है। वहाँ पर राजस्थानी गट्टे की सब्जी सब को बहुत पसंद आयी।

इसके बाद हम सभी पीर दरगाह



के लिए चले।  रास्ता संकरा था तथा वहाँ बस नहीं जा सकती थी , वहाँ जाने के लिए हमने छोटे टैम्पू लिए जिन में 6 -6 लोग सवार हुवे।  इतनी तेजी से टैम्पू सरपट भगे जा रहे थे कि डर लग रहा था कि इनके पहिये गलियों की नाली में न फंस जाएँ और हम लुढक न जाएँ। भीड़ बहुत थी एक तरह से मारामारी थी।  मुझे तो वहाँ के परिवेश में एक भय सा लग रहा था , पर बीनाजी ने कहा कि आप यहाँ थोड़ी देर बैठ जाओ और वे एक चक्कर लगाने चली गयीं , जब तक वे लौट कर नही तब तक एक आशंका बनी रही।  वहाँ एक प्रसाद दूकान पर सभी ने अपने जूते-चप्पल उतारे थे वहाँ तो उसके जूतों का कचूमर बन गया।  भीड़ में लोग जूते -चप्प्ल को रोंदते जा रहे थे।  मेरे जूते तो टूट गए , पहनने के लायक ही नहीं रहे।  किसी प्रकार घसीटते हुवे पहन कर चला।  श्रीमती शास्त्री की तो चप्पल ही वहाँ से गायब हो गयीं।खैर जैसे-तैसे वहाँ से निकले तथा टैम्पू पकड़कर जहाँ बस खड़ी थी वहाँ आ गये।  वहाँ से चलते- चलते ध्यान आया कि कुछ तो दान देना चाहिए ; जहाँ गरीबों के लिए बड़ी देग में प्रसाद बनता है वहाँ 100 सौ रुपये डाल दिए ताकि कुछ धर्मार्थ काम आ सके।  मौलवी और अन्य को देने में कोई ख़ास इच्छा नहीं हुयी।

बस में बैठकर हम पुष्कर के लिए रवाना हो गये।  रास्ते में आना सागर ' दिया बाती और हम ' का ध्यान आ रहा था। क्योंकि इस सीरियल की कथा इसी पुष्कर शहर पर ही आधारित है , इस शहर के पात्रों का प्रमुख निवास पुष्कर की हनुमान गली है।  इसमें भाभो , संध्या , सूरज का प्रमुख रोल है।  


, दयानंद ऋषि उद्यान होते हुवे पुष्कर मार्ग की ओर बढ़ गए।  रास्ते में एक स्थान पर रुककर चाय आदि पी।  चाय अच्छी थी साथ में चिप्स के पैकेट आदि भी लिए।  रास्ता पहाड़ी था सड़क पर कई घुमाव थे। पहाड़ पर ऊपर चढ़ने के बाद नीचे उतरना था ; क्योंकि पुष्कर सरोवर नीचे घाटी में था।  

पुष्कर में हमारा होटल मुख्य शहर से लगभग 8 किलोमीटर दूर था ; होटल का नाम ' आराम बाग़ ' था। यह



एक रिसोर्ट है। इसमें अनेक राजाओं एवं रजवाड़ों के चित्र लगे हुए हैं।  यह स्थान बहुत ही खूबसूरत है।  रात्रि में पहुँचने पर तो इतना आभास नहीं हुवा , पर सुबह इस सब का आभास हुवा।  सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से घिरा हुवा है। रात्रि को लगभग 7 बजे हम रिसोर्ट पर पहुँच गये।  कमरा लेने के बाद आराम करने चले गये।  वहाँ 8 बजे राजस्थानी लोक नृत्य एवं संगीत का प्रोग्राम था ; जिसे विदेशी पर्यटक बहुत संख्या में देख रहे थे। हमने भी कुछ देर वहाँ आनंद लिया।  खाना खाने के लिए कई सीडियां पार कर काफी ऊपर की ओर जाना पड़ा।  वातावरण भव्य था।  वहाँ बार भी था , जहाँ विदेशी तथा अन्य मेहमान मधुशाला में लुफ्त उठा रहे थे।  हम तो सीधे-सादे बस देख रहे थे।  हमने तो अपना शाकाहारी - जैन शुद्ध भोजन किया।  मीठे में भी कई व्यंजन थे।  मैंने और बीनाजी ने थोडा-सा मालपुवा लिया।  तथा जल्दी -जल्दी खा-पीकर विश्राम करने चले आये।

कमरा भी भव्य था , जरूरत की सब चीजें मौजूद थीं।  अलग से किचन , चाय बनाने की इलेक्ट्रिक कैटल, वार्म हीटर , एसी , छोटा-सा कमरे के पीछे स्वीमिंग पूल आदि सब मौजूद था। स्वर्ग  का -सा वातावरण था।  मन में आनंद की हिलोरें उठ रहीं थीं।  थकावट-सी होने लगी थी , अब आराम तथा सोना ही उचित समझा।


प्रात: 8 नवम्बर  

प्रात: उठने के बाद एवं स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद कुछ टहलने का निर्णय किया। आस-पास के दृश्य बहुत ही अच्छे एवं आकर्षक थे।  रिसोर्ट काफी बड़ा था।  जैसे पहाड़ों में क्यारियां बनी होती हैं उसी प्रकार ऊपर -नीचे रिसोर्ट के ब्लाक बने हुवे थे।  प्रबंध उत्तम था तथा लगभग इसमें ऊपर-नीचे सब मिलाकर लगभग 200 - 250 तो कॉटेज होंगी ही।  वातावरण खुला और उन्मुक्त था।  यहाँ तो कुछ दिनों के लिए आराम करने के लिए आया जा सकता है।

वहाँ से अच्छी तरह नाश्ता करने के बाद हम लोग पुष्कर सरोवर की ओर चल पड़े।  विभिन्न प्रकार के खेतों आदि को पार कर हम पुष्कर में ब्रह्मा मंदिर पर पहुंचे कहा जाता है कि यह विश्व में ब्रह्मा जी का अनोखा तथा अकेला मंदिर है।  यहाँ जल्दी-जल्दी दर्शन कर सरोवर पर पहुंचे।




पुष्कर में एक घंटा रुकने के बाद हम 10 बजे के लगभग माउन्ट आबू की ओर चल पड़े।  सफर लम्बा था कम से कम 10 घंटों में पहुँच सकते थे।  अजमेर , ब्यावर , सिरोही होते हुवे चलते चले गये।  लगभग 400 किलोमीटर की दूरी थी।  रास्ते में एक घंटा रुककर भोजन आदि भी करना था।  रास्ते में खाना अच्छा मिला , राजस्थानी भोजन छाछ आदि के साथ था।  आबू रोड के बाद माउन्ट आबू के लिए पहाड़ी रास्ता प्रारम्भ होता था।  इधर अँधेरा और रात भी हो गयी थी।  रास्ते में टेढ़े - मेढ़े रास्ते थे , जो एक भय पैदा कर रहे थे।  एक तरफ खंदक और दूसरी ओर पहाड़ थे।  ईश्वर से सकुशल यात्रा की प्रार्थना की।  लगभग 8 बजे हम होटल स्टार विला में पहुँच गये।  होटल पहले के मुकाबले इतना अच्छा भी नहीं था।  इलेकट्रिक कैटल की चाय आदि के लिए भी व्यवस्था नहीं थी। रात्रि को भोजन के बाद विश्राम करने की सोची।  भोजन ठंडा तथा उसमें मिर्च अधिक थी।  बड़ी मुश्किल से खाया गया।  बाहर आकर अपनी इच्छा एवं रूचि का तो सब कुछ नहीं मिल सकता सब एडजस्ट करना पड़ता है।  

होटल में पता चला कि सुबह 8 बजे से पहले चाय नही मिल सकती और हमें तो जल्दी चाहिए थी ताकि फ्रेश हुवा जा सके।  गुरूजी ने हमें सुबह बताया कि होटल से कुछ दूरी पर एक चाय की दुकान है , वह खुली हुयी है।  फिर हम दोनों उसी दुकान पर चाय पीने चले गये।  कुछ तो अभी सोकर भी नहीं उठे थे। 


9 नवम्बर माउन्ट आबू - भ्रमण 



प्रसिद्ध जैन मंदिर माउंटआबू






सुबह 10 बजे हम माउंटआबू के लिए घूमने को निकले , रास्ते में कई गाइड टकराए और घुमाने के लिए सौदेबाजी करने लगे।  पर उनसे बात नहीं बन पायी , कुछ आगे चलकर एक छोटा-सा बालक जो नवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने गाइड बनने की इच्छा जाहिर की।  सब को आश्चर्य हुवा कि वह क्या घुमायेगा ? पर उसमें आत्म-विश्वास था।  वह अपेक्षाकृत कम पैसे में तथा 4 बजे तक रहने के लिए भी तैयार था।  सब ने उसका चयन ही उचित समझा।  पहले तो वह लड़का कुछ संकोच करता रहा , पर बाद में वह खुल गया तथा वह बहुत अधिक आत्मविश्वास के साथ वहाँ के दृश्यों एवं स्थानों के विषय में समझाता रहा।  कुछ देर बाद वह कुछ खुला एवं मजाक आदि भी करता रहा।  उसकी एक बात अब भी याद आती है कि __ " बिना पत्ती के चाय का मज़ा नहीं और बिना बीबी के माउंटआबू में मज़ा नहीं " . साथ ही उसने सुनाया ___ " वो खुसबू नहीं न रही वो लाली ; अब तो वो हो गयी बाल-बच्चों वाली। "

इस  प्रकार हम घूमते रहे।  कुछ फल आदि भी लिए तथा नक्की झील में वोटिंग का भी आनंद लिया।  नक्की झील के सामने भारत माता की मूर्त्ति बहुत आकर्षक लग रही थी।  वहाँ से लौटते हुवे गुजराती भोजनालय में कुछ लोगों ने भोजन लिया तथा अन्य ने बर्गर आदि खाया।  खाने में अपनी-अपनी पसन्द थी।  श्री सुशील गुप्ता जी ने खाने -पीने के विषय में बात-चीत कर मीनू सैट किया।  खाना अत्यधिक स्वादिष्ट एवं पौष्टिक था।  होटल में घिया की सब्जी हमें बहुत पसन्द आयी।  वहाँ का बाजार छोटा एवं आकर्षक था।


 मेरे जूते तो अजमेर शरीफ में ही टूट गये थे।  मैंने वे जूते पुष्कर होटल में ही छोड़ दिए थे।  इसके बाद से मैं चप्पल में ही काम चला रहा था।  चप्पलों से चलने में परेशानी होती थी।  मेरी नजर माउंटआबू के बाजार में जूते की ही दुकान पर थी। तभी अचानक मुझे जूतों की दुकान दिखायी दे गयी , यहाँ से जूते लेना मैंने उचित समझा।  मैंने वहाँ जाकर कपड़े के अच्छे जूते दिखाने को कहा।  एक जोड़ी जूते मुझे पसन्द आये , कीमत भी ज्यादा नहीं थी 350 रुपये के जूते थे।  पर इसके बाद मेरी लेने की हिम्मत नहीं हुयी।  सोचा ये ठीक भी रहेंगे या नहीं।  मैंने बीनाजी को फोन मिलाया , वें पीछे ज्वेलरी की दुकान पर शेष महिलाओं के साथ रुकी हुयीं थीं।  पर उनसे बात नहीं हो सकी।  तभी जूतों की दुकान के सामने मुझे बंसलजी नजर आये , उन्हें मैनें आवाज देकर अपने पास बुलाया।  उनसे सलाह ली और उनके कहने पर मैनें जूते खरीद लिए।  जूते आराम दायक थे।  जूते पहन कर चप्पल पैक करवा दी।  बाद में बीनाजी ने भी कहा कि अच्छा क्या जूते ले लिए और अब आगे घूमने में आराम रहेगा।  जूते पहनकर मुझे अच्छा लग रहा था।  मुझे कुछ सुकून मिला।

लगभग 4 बजे हम लौटकर रास्ते में चाय पीते हुवे हम होटल आ गये।  होटल में आकर कुछ देर टीवी देखा और समाचार आदि सुने।  थोड़ी देर बाद पता चला कि कुछ लोग बाजार घूमना चाहते हैं , जिनमें अधिकांश महिलाएं थीं।  बीनाजी ने बाजार जाने  की इच्छा प्रकट की।  मैनें तो आराम करना ही उचित समझा।  कुछ देर में कुछ लोग बाजार चले गये।  मैं तो थोड़ी देर के लिए सो गया।  होटल का प्रबंध इतना अच्छा नहीं था।  पहले दिन खाने में मिर्च बहुत अधिक थी , अब उनसे कहा गया तो खाना कल की तुलना में अच्छा था।  खाना बैठाकर  सही तरीके से खिलाया गया ; कुछ राहत महसूस हुयी।  बाहर अपनी पसन्द का खाना तो नहीं मिल सकता।  लेकिन उसे बेहतर तो बनवाया ही जा सकता है।  रात को विश्राम के बाद तथा प्रात: नाश्ते के बाद हमने होटल छोड़ दिया।

10 नवम्बर 

माउंटआबू से हम 9 बजे हम प्रस्थान उदयपुर के कर लिया।  उदयपुर का भी रास्ता भी लम्बा था।  पहले हमें विश्व प्रसिद्ध हल्दी घाटी में जाना था।  हल्दी घाटी विशेष आकर्षण का केंद्र रहा है।  हल्दी घाटी के मोड़ से पूर्व एक टोल टैक्स बैरियर था।  वहाँ थोड़ी देर के लिए हमारी बस रुक गयी।  वहाँ सामने कुछ हंगामा हो रहा था।  कोई दैनिक संघ की यात्रा एवं जलूस आदि था।  काफी वाहन थे। कुछ झगड़े का आभास तो हुवा , पर हम सोच रहे थे हमसे क्या मतलब ? तभी बस रुकी तो राजेन्द्रजी ने सोचा कि बस रुकी तो है ही क्यों न शंका निवारण कर ली जाये।   वे  सड़क को पार कर एकांत स्थान को देखते हुवे दूसरी ओर जाने  लगे।  वे अभी उधर जा भी नहीं पाये थे कि एक बहुत भीड़ उनकी ओर डंडे -लाठी लेकर भागने लगी।  तभी हमारे बस के ड्राइवर गुलाब ने देखा और वह तुरंत कूद कर उस ओर भागा। साथ ही राजेन्द्रजी तक वे पहुँच ही गए थे तभी साहस का परिचय देते हुवे राजेन्द्रजी ने पूछा क्या बात है ? भीड़ में से एक बोला कि तुम टोलटैक्स अधिकारी हो और यहाँ से भाग रहे हो। राजेन्द्रजी ने कहा कि मैं तो टूरिस्ट हूँ और मैं तो यहाँ पेशाब करने जा रहा था।  भीड़ में से एक ने कहा  कि क्या प्रूफ है ?
__ मेरा आईकार्ड देख लो।

__ तभी ड्राइवर ने कहा _ कि यह तो मेरी बस में चाहे वहाँ जा कर देख लो।

ऐसा प्रतीत हुवा कि वे संतुष्ट होकर लौटने लगे।  हमने सोचा कि एक बला और विपदा टल गयी।  वास्तव में यह कथा ही दूसरी ही निकली।  हमारी साँस में सांस आयी। बस में बैठकर बातें होने लगीं , पता नही किसका लिया-दिया काम आया।  टॉल बैरियर का रास्ता खुल गया और बिना टैक्स चुकाए ही गाड़ियां पास होने लगीं।    साथ ही हमारी बस भी बिना टैक्स दिए पार हो गयी ; पुलिस का काफी इंतजाम था।

इसके बाद हमारी बस में रोड से हटकर साइड रोड पर आ गयी और हम हल्दीघाटी की ओर बढ़ चले।  अभी यह स्थान लगभग 25 - 26 किलोमीटर था। पहुँचने में एक घंटा तो लगना ही था।  टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलती हुयी बस आगे गंतव्य की ओर बढ़ रही थी।  दोनों ओर के दृश्य बहुत ही आकर्षक लग रहे थे।  छोटी- छोटी पहाड़ियां नजर आ रही थीं और यह छापा - मार युद्ध एवं छिपने का उचित स्थान दृष्टि गोचर हुवा।  महाराणा प्रताप ने यहाँ पर मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे।  बाद में हमें पता चला कि यहाँ के पहाड़ियों की मिट्टी हल्दी के रंग की होने के कारण इसे हल्दी घाटी कहा गया और हमने उस रंग को देखा , वास्तव में वह हल्दी ही लग रही थी।

कुछ दूर चलकर चाय आदि पीने के लिए रुके। एक बात विशेष रूप से नोटिस की कि वहाँ शरीफे ले फल पर्याप्त मात्रा में थे ये फल अत्यधिक स्वादिष्ट एवं सस्ते भी थे।  केले , शरीफे और बेर आदि का स्वाद लेते रहे।  बहुत ही आनंद आ रहा था।  हल्दीघाटी के नाम से ही एक उत्तेजना का भाव बचपन से ही आता रहा है।  उस पुण्य-भूमि का अपना ही आकर्षण था।  सोच रहे थे , जल्दी से वहाँ पहंच जाएँ।







हल्दीघाटी पर पहुंचकर बहुत ही अच्छा लगा , वहाँ अब एक म्युजियम बन गया है।  वहाँ अंदर जाने के लिए टिकट थे।  कैमरा वहाँ प्रतिबंधित था तथा उसका अलग से टिकट था।  वहाँ जाकर एक देश भक्ति का भाव उत्पन्न हो जाता है।  महाराणा प्रताप का रणक्षेत्र जो था , वहाँ लड़ाई तो बहुत हुयी पर कोई जीता- हारा नहीं।  यहाँ चेतक के साथ-साथ वैश्य व्यापारी भामाशाह का भी विशेष योगदान है। यहाँ हमे डाक्यूमेंटरी फ़िल्म तथा संग्रहालय भी देखा।  देखकर मन भाव-विभोर हो गया।  वहाँ हम लगभग दो घंटा रुके।  कुछ ने वहाँ लगे हुवे स्टाल से खरीदारी भी की।  वहाँ शहद , गुलाब-जल , अचार , कपड़े आदि बिक रहे थे।

इसके बाद हम नाथद्वारा की ओर चल पड़े। दो घंटे की यात्रा के बाद हम नाथद्वारा पहुंचे।  नाथद्वारा उदयपुर के पास प्रसिद्ध कृष्ण मंदिर है।  मंदिर से बहुत पहले ही हमें रोक दिया गया।  वहाँ बस खड़ी करके पैदल ही हम चल पड़े , करीब एक से अधिक किलोमीटर चलना पड़ा।  आगे तंग बाजार और गलियां थीं।  वहाँ चाकू तलवार छुरे आदि ही ज्यादा बिक रहे थे।    



नाथद्वारा से हम शाम को उदयपुर पहुँच गये।  उदयपुर के होटल में कमरा तीसरी मंजिल पर था।  उदयपुर में होटल में ही रेस्टोरेंट था।  यह विश्वविद्यालय मार्ग पर एक नयी कालोनी में स्थित है।  पर होटल ऐसा लगता है कि यह किसी गंदे नाले पर स्थित था तथा यहाँ बदबू भी बहुत आ रही थी।  कमरे में अगरबत्तियां जलवायी गयीं।  फिर भी बदबू जाने का नाम ही नहीं ले रही थी।  होटल रॉयल इन था , पर इसमें रॉयल जैसी कोई बात भी नहीं थी।  न ही चाय आदि के लिए किट एवं कैटल आदि भी नहीं थी।  रात को निश्चय हुवा कि खान नौ बजे लेना है।  खाना खाने पहुंचे तो कोई प्रबंध नहीं था।  भीड़ भी काफी थी।  नम्बर ही नही आ पा रहा था।  हमने गलती से पहली ही शुगर के दवा ले ली थी उसके आधे घंटे बाद खाना अवश्य ही चाहिए होता है।  यह तो अच्छा हुवा कि सुशीलजी ने फोन से अपना आर्डर बुक करवा दिया था।  उन्होंने आलू के परांठे का आर्डर दिया हुवा था। उनके आर्डर को शेयर किया तथा बाद में डोसा आदि भी मंगवाया।  इसके बाद विश्राम करने चले गये।

11 नवम्बर 2013 

उदयपुर - भ्रमण 









सुबह नाश्ता आदि करने के बाद हम बस में बैठ गये। बस उदयपुर शहर के बीच में से जा रही थी।  प्रात: का समय होने के कारण भीड़ अपेक्षा कृत कम थी।  हमारी बस बाजार में से आराम से निकल रही थी।  एक प्रसिद्ध गार्डन में पहुंचे।  गार्डन बहुत बड़ा था।  उसमें काफी चलना पड़ा।  कुछ लोग तो कुछ देर बाद थक के बैठ गये।  पर हम कुछ लोग चलते चले गये।  आगे पता चला कि यहाँ छोटी ट्रेन चलती है , जिसमें बच्चों के साथ-साथ बड़े भी बैठ सकते हैं ; ट्रेन आध घंटे में पूरे पार्क का चक्कर लगा देती है। रास्ते में बहुत ही सुंदर दृश्य थे और छोटा-सा जू अर्थात चिड़ियाघर भी था।  यह सब देखकर बहुत ही आनंद आ रहा था।  इसमें टिकट भी था। 

गार्डन के बाद हम पैलेस पहुंचे।  पैलेस झील के अंदर है।  पैलेस का नजारा दूरबीन के माध्यम से लिया। झील के किनारे बैठकर भुट्टे आदि खाये। अपनी पुरानी राजधानी चित्तौड़गढ़ पर मुगलों के लगातार आक्रमण से परेशान होकर महाराणा उदय सिंह ने पिछौला झील के तट पर अपनी राजधानी बनाई जिसे उदयपुर नाम दिया गया।इसके बाद झील के पास ही स्थित मंशा चिंतापूर्णी माता के दर्शन हेतु रोपवे से गये , ट्रौली मवन बैठकर बहुत ही आनंद आया।  उदयपुर में महाराजा के महल के दर्शन किये तथा इससे पहले दोपहर का भोजन किया।  दोपहर के बाद शाम को सहेलियों की बाड़ी देखते हुवे होटल आ गये। आज श्रीमती सुशील गुप्ता मृदुला भाभीजी का जन्मदिवस होने के कारण सुशीलजी बढ़िया केक अर्थात मिल्क केक लाये जिसको काटकर हर्षोल्लास सहित जन्म-दिन मनाया गया।  फोटो आदि भी खींचे गये , बहुत ही ख़ुशी का वातावरण था।  

अगले दिन 12 नवम्बर को हम उदयपुर से नाश्ता आदि करके चितौड़गढ़ के लिए चल पड़े। चितौड़गढ़ में विजयस्तम्भ देखा तथा वहाँ से शीघ्र ही निकलकर जयपुर के लिए चल पड़े और शाम को लगभग 7 बजे तक जयपुर ग्रीन्स के अच्छे एवं भव्य होटल में पहुँच गये। रात्रि जाकर विश्राम किया।  

13 नवंबर  को नाश्ते के उपरांत लगभग 10 बजे जयपुर भ्रमण हेतु निकले।सबसे पहले लक्ष्मीनारायण मंदिर अर्थात बिरला मंदिर पहुंचे। इसके बाद बाजार होते हुवे हवामहल - जलमहल आदि गये।  बाजार में सभी नामपट्ट हिंदी में ही थे।  पूरा बाजार गुलाबी नजर आ रहा था।  बाजार में बहुत भीड़ थी , पर कानून-व्यवस्था पार्किंग के विषय में  उत्तम थी। 



जयपुर
गुलाबी शहर
जयपुर का हवामहल
जयपुर का हवामहल


आमेर का किला
नियोजित तरीके से बसाये गये इस जयपुर में महाराजा के महल,औहदेदारों की हवेली और बाग बगीचे,ही नही बल्कि आम नागरिकों के आवास और राजमार्ग बनाये गये.गलियों का और सडकों का निर्माण वास्तु के अनुसार और ज्यामितीय तरीके से किया गया। 
इसके बाद आमेर के किले पर पहुंचे , वहाँ जोधा अकबर फ़िल्म की शूटिंग भी हुयी ऐसा बताया गया था।हमारी बस वहाँ जा नहीं सकती थी , इसलिए ऊपर जाने के लिए दो जीप भी ली गयी।  साथ में गाइड का भी प्रबंध किया गया।  गाइड ने काफी जानकारी दी।  वहीँ जीमण रेस्टोरेंट में खाना खाया।  खाना स्वादिष्ट सस्ता एवं अच्छा था। इसके बाद कनकवाटिका में पहुंचे। 


जंतर मंतर, जयपुर
एक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए किया जाता है।





 
कनकवाटिका में काफी देर तक हठात विश्राम करते रहे। एकतरह से टाइमपास करते रहे। यह माना गया कि अब काफी शाम हो गयी है और अब किसी भी दर्शनीय स्थल के लिए समय नहीं बचा है। ग्रुप में से 
अधिकांश महिलाएं जयपुर के बाजार में शॉपिंग करना चाहती थीं। हमारा मन तो कहीं ओर जाने का भी नहीं था।  मैं और बीनाजी तो होटल में जाकर ही विश्राम करना चाहते थे।  गुरूजी की इच्छा भी होटल जाने कि ही थी , बाद में बड़ी नोंक-झोंक एवं चर्चा इस विषय पर होती रही।  सुशीलजी बाजार में घूमने के इच्छुक थे तथा वे अन्य सभी को कह रहे थे। अंत में निर्णय हुवा कि जो चाहें बाजार में उतर जाएँ एवं शेष होटल चलें।  होटल भी लगभग 15 किमी था।  ड्राइवर भी नहीं चाह रहा था कि वह इतनी उलट -फेर करे।  काफी बहस के बाद ड्राइवर तैयार हो गया।  इसके बाद हम तो होटल वापिस आ गये और आकर विश्राम किया।  काफी थकान हो गयी थी। 

14 नवम्बर को प्रात: नाश्ते के बाद हम बस में समान रखकर जयपुर भ्रमण हेतु शेष स्थलों की और चल पड़े। सबसे पहले हम जंतर-मंतर पर गये , वहाँ गाइड लेने के विषय में चर्चा हुयी , कुछ लोग आगे चले गए पर बाद में बंसलजी ने गाइड तय कर लिया।  जो हमारे साथ रहा तथा हमें समझाता रहा ; बड़ा ही अच्छा लग रहा था।  इसके साथ ही लगा हुवा जयपुर के राजा का महल देखा।  इसके बाद खरीदारी करते हुवे एलएमबी में खाना खाने के लिए पहुंचे।  सुशीलजी की तथा बंसलजी की बहुत इच्छा थी कि एलएमबी में खाना खाया जाए।  वे हमें उधर ले भी आये , पर गुरूजी तो कह रहे थे कि एलएमबी का भोजन महंगा ही होगा।  पर सब के कहने पर वे चुप हो गये।  खाना का आर्डर बंसल जी ने दिया साथ में उन्होंने कहा कि आज 14 नवम्बर को मेरे धेवते का जन्म -दिन है तथा अब हम सब मिलकर उसका जन्म-दिन मनाएंगे।  सभी को बहुत ही अच्छा लगा और सभी ने राहत भी महसूस भी की।  एलएमबी जयपुर का एक शानदार रेस्टोरेंट है एवं अपेक्षाकृत वह महंगा भी है , वास्तव में वह पुरानी ' लक्ष्मी मिष्ठान भंडार ' दुकान है , जिसका शॉर्ट रूप ' एलएमबी ' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें रेस्टोरेंट के साथ-साथ होटल भी है।  मैं यहाँ 10 वर्ष पूर्व भी आ चुका था और यहाँ मैंने बादाम का हलुवा खाया था। 31 दिसंबर का दिन था तथा बीएड की मान्यता लेने का अंतिम दिन था।  पूरे उत्तर भारत की मान्यता जयपुर से ही मिलती थी।  उस समय में प्राचार्य था तथा अपनी टीम के साथ इसी संदर्भ में आया हुवा था तथा तभी मैंने उन दिनों मिर्च का का विशेष बड़ा पकोड़ा भी खरीदा था।  यह मेरे लिए यहाँ का आकर्षण रहा था। एलएमबी में बसलजी का लगभग 4 हजार का बिल आ गया था। 

इसके बाद हम स्टेशन की ओर बढ़ने लगे ट्रेन का भी समय हो चुका था। सभी को जल्दी थी।कुली किया गया , जबकि कुछ लोग तो चाहते थे कि कुली किया ही न जाये। पर गुरूजी की इच्छा थी कि कुली किया जाये।  कुली किया गया , पर कुली इतनी जल्दी चलते हैं कि लगभग उनके साथ चलने वाले को तो दौड़ना ही पड़ता है।  हम स्टेशन पर लगभग आधे घंटे पहले पहुँच गये थे।  ट्रेन अजमेर से आनी  थी तथा उसे थोड़ी देर रुकना था। कुली को पैसे देकर विदा कर दिया गया था , जबकि यह तै होना चाहिए कि वह सब का समान ट्रेन में छोड़कर जाये।  यह सीनियर सिटीजन का टूर था और इसमें इस बात को तो ध्यान तो रखना चाहिए था।  इतना पैसा आराम के लिए तो खर्च करते हैं और वह भी न मिले तो इसका लाभ ही क्या है ? किसी को भी अपनी मनमर्जी नहीं कर देनी चाहिए।  

आगे आधी दूर आने पर पता चला कि ट्रेन का इंजन खराब हो गया है और गाडी दो घंटे तक अलवर के आसपास रुकी रही।  इंजन नया आया , तब जाकर ट्रेन चल सकी।  इसप्रकार ट्रेन दो घंटे से अधिक लेट हो गयी।  नयी दिल्ली स्टेशन पे गाडी लगभग एक बजे पहुंची , यहाँ भी कुली का नाटक हुवा , खैर किसी तरह से गाज़ियाबाद से आयी बस में सवार हुवे।  सबको घर पर छोड़ना था।  सभी को जल्दी थी और ऑर्गेनाइजर ही सबसे पहले अपने घर पर उतरने को आतुर दिखे।  बस सब को घर पर छोड़ते हुवे आयी तथा सबसे बाद में हम अपने घर पर पहुंचे।  लगभग ३ बज चुके थे और सकुशल यात्रा के लिए ईश्वर का बहुत-बहुत धन्यवाद दिया।  

यह भ्रमण हमारा कुछ अलग हट कर था।  इसमें कुछ लोगों का अधिकारत्व अधिक बढ़ चुका था , सहयोग एवं सदाशयता का पूर्णत: आभाव था।  सभी नेता होना चाह रहे थे किसी एक के नेतृत्व में कोई चलना नहीं चाह रहा था।  इससे पहले के टूर में अंडमान - कलकत्ता में कोई विशेष परेशानी नहीं हुयी थी तथा सभी पारस्परिक सहयोग से काम ले रहे थे। सभी को प्रेम एवं सहयोग का परिचय देना चाहिए। 

इस टूर  के विषय में यह धारणा बन गयी थी कि इसमें कुछ विशेष कठिनाई आएगी।  पता नहीं यह कैसे धारणा बन गयी।  किसी ने कहा कि एक सपना आया है कि ऐसा ही कुछ गलत होगा। वैसे तो ऐसा सोचना नहीं चाहिए , जैसा सोचते हैं और वैसा ही सपना आता है।  यदि आ भी जाये तो किसी को बताना नहीं चाहिए , इससे एक शंका निर्मूल में जन्म ले लेती है।  हमें आशावान होना चाहिए ; बी पॉजिटिव का सिद्धांत अपनाना चाहिए।  अच्छा सोचेगे तो अच्छा ही होगा।  बुरे के विषय में क्यों सोचा जाये, जो होगा देखा जायेगा।  इतने बड़े प्रोग्राम में कुछ ऊँच -नीच तो होती ही रहती है। सुशीलजी तथा श्रीमती मृदुला जी का सीडियों पर फिसल जाना तथा संयोगवश गुरूजी कि गर्दन पर रॉकेट लग जाना आदि तो छूट-पुट घटनाएं हैं और इन्हें दुर्घटना का नाम नहीं दिया जा सकता। 


मेरे विषय में बात एक विशेष है कि मुझे एक महीने पूर्व बुखार आया था तथा मेरी तबियत भी बहुत खराब हो गयी थी।  यदि प्रोग्राम पहले न बना होता तो हम दोनों इस टूर में जाते ही नहीं।  डाक्टर से पूरी दवाई एवं हिदायत लेकर ही मैं आ पाया था।  मुझे तो सूगर की शिकायत थी तथा खाना तथा दवाई को समय पर लेने को कहा गया था। न ही ऊंट की तरह एक समय में खाना भर सकते थे और थोडा -थोडा खाना ही समय पर ले सकते थे।  दोपहर का खाना न लेने की स्थिति हमारे लिए हितकर नहीं थी।  पहले तो यह सब चल गया , पर अब इस बार चलना कठिन था।  इसी बात पर कुछ दुराव होता चला गया।  मैं जनता था यह हो रहा है , पर मैं कुछ भी करने में असमर्थ था।  पर इस सब को संयोग मानकर ही  मैंने स्वीकार कर लिया।  हम दोनों तो साथ में ही प्राय: रहते , क्योंकि दवाई आदि का भी ध्यान रखना होता है। 

कुल   मिलाकर प्रोग्राम अच्छा रहा।  पर आगे प्रोग्राम बने तो सब बातें हो जानी चाहियें ताकि कोई भी किसी प्रकार कि गलत धारणा न बने।  नादान से दोस्ती से अच्छा तो यह कि अकलमंद से दुश्मनी भली।