शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

वैदिकों का आराध्य देव ईश्वर

निर्गुण ब्रह्म और सगुण ईश्वर दोनों का विचित्र मेल 



समस्त प्राणियों में स्थित एक देव है। वह सर्व व्यापक , समस्त भूतों की अंतरात्मा , कर्मों का अधिष्ठाता , सभी प्राणियों में निवासित , सब का साक्षी , शुद्ध , चेतन एवं निर्गुण है। श्वेताश्वतरोपनिषद का यह मंत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है -

 " एको देवसर्वभूतेशु गूढ़ : सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा  कर्माध्यक्ष : सर्वभूताधिवाससाक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च: " इस मंत्र में १० रूप हैं -- १ एको , २ सर्वभूतेषु गूढ़:, ३ सर्व व्यापी , ४ सर्व भूतान्तारात्मा , ५ कर्माध्यक्ष: , ६ सर्वभूताधिवास: , ७ साक्षी , ८ चेता , ९ केवल: , १० निर्गुणश्च । प्रस्तुत मंत्र में संख्या का प्रारंभ १ से होता है। ९ पूर्णांक है और नौवीं संख्या' केवल ' है तथा दसवीं संख्या ' निर्गुण ' है , जिसका गुणन नहीं हो सकता , वह शून्य है तथा मंत्र के अंत में ' निर्गुण ' शब्द आया है। शून्य स्वतनिर्गुण है। ऊपर वाले एक पर अंत वाले निर्गुण शून्य को बैठा देने से १० संख्या स्वत: बन जाती है। ९ पूर्ण इसलिए है कि वह जहाँ भी रहता है , अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता , अत: ' केवल ' है ; जैसे -- ९+९ = १८ हुवा, १+८=९ । इसी तरह ९ का पूर्ण है तथा ' केवल' है। इस मंत्र में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ईश्वर दोनों का विचित्र मेल है। आदि में वह एक था और अंत में सब कुछ अपने भीतर समेट कर एक भी नहीं रहा, शून्य बन गया -- निर्गुण बन गया। संख्या - धारण करने का तात्पर्य सीमित बनना होता है। वह ईश्वर एक है ,किन्तु दो, तीन, चार, पांच आदि नहीं है। 

यह वैदिकों का आराध्य देव ईश्वर है , जिसकी कोई प्रतिमा नहीं हो सकती , वह ध्यान में नहीं आ सकता ; क्योंकि निराकार को देखा नहीं जा सकता --- दृष्टि को रूप - रंग चाहिए , किन्तु वह रूप और रंग से रहित है--- यजुर्वेद के अनुसार -- "  तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद यश: " । ऋग्वेद के अनुसार एक ही मूल तत्त्व को विद्वान् अग्नि , यम , मातरिश्वा आदि नामों से पुकारते हैं ---" एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातारिश्वनामाहु: " । 


गीता में स्वयं श्री कृष्ण ने भी यही कहा है कि वे ही सब कुछ हैं -- जल में रस , सूर्य - चन्द्र में प्रकाश , सभी वेदों में ओंकार , आकाश में शब्द , पुरुषों में पराक्रम , पृथ्वी में गंध , अग्नि में तेज , प्राणिमात्र में जीवन , तपस्वियों का तप आदि। जब वह अपने ही भीतर ही स्थित है तब उसे हम जान क्यों नहीं पाते। यजुर्वेद के ऋषि का मत है कि वह सर्वत्र ओत-प्रोत है , सूर्य की तरह प्रकाशमान है , किन्तु अज्ञान के अंधकार के कारण उसे देख नहीं पाते। उसे जान लें तो मृत्यु से छुटकारा ही मिल जाये। अमृतत्त्व प्राप्त करने का अन्य कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं है-- नान्यपन्था विद्यते अयनाय " ।

देहाध्यास यदि समाप्त हो जाये तो फिर वही ईश्वर शेष रह जाता है , जो सबका कारण है पर उसका कोई कारण नहीं है। अन्य सभी वस्तु मृत्यु में क्षर-प्रधान हैं। उन्हें भी कभी- न - कभी उस ' निर्गुण ' में विलीन होना ही पड़ेगा ऋषियों के विचार ईश्वर अर्थात मूल- तत्त्व को जान लेने से मृत्यु की सम्भावना सदा के लिए समाप्त हो जाती है। ईश्वर हमारे भीतर है और सर्वत्र भी है। आसान तो यही होगा कि जो ईश्वर हमारे भीतर है उसी को हम जान लें -- दूर - दूर चौकड़ी भरने से क्या लाभ ? वैदिकों ने ईश्वर को अपने भीतर जाना और उस आत्म्पुरुष को जानने के लिए केवल चार उपायों का आश्रय लेने का परामर्श ऋषियों ने दिया। ईश्वर को जान लेना ही अध्यास का अत्यन्ताभाव होना है और अध्यास का अत्यन्ताभाव हुवा नहीं कि अभेद भावना पैदा ही गयी -- कुंठा का अंत हुवा तो यह शरीर ही वैकुण्ठ बन गया , जिसमें आत्मपुरुष स्थित है। यह आत्मा - आत्मपुरुष पठन- पाठन से , बुद्धि से , शास्त्रों से पाप्त नहीं होता। साधक जिस आत्मा का वरण करता है , प्रार्थना करता है , उस वरण करने वाले आत्मा द्वारा यह आत्मा स्वयं ही प्राप्त किया जाता है ; अर्थात उसे ही 'यह ऐसा है ' इस प्रकार जाना जाता है---नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो  मेधया  बहुना श्रुतेन ।

 यमेवैष वृणुते तेन लभ्य्स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूंस्वां ॥ " ईस्वर और अपने भीतर ईश्वर की कल्पना ऋषियों की चमत्कारपूर्ण रचना है। जिससे इस जगत के जन्मादि अर्थात -- उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय होते हैं , वही ब्रह्म है। मानदूक्योपनिषद में कहा गया है कि  आत्मा  विज्ञेय: " वही आत्मा है , वही जानने योग्य है। ऋषियों ने चिंतन की अंतिम चोटी पर पहुँच कर पता पा लिया कि वह एक ही देव है , जो सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। वही कारण- रूप है , वह आत्मपुरुष है , वही हमारे भीतर है। वह जहाँ भी है , पूर्ण है खंड नहीं है --- अणु में भी और विश्व्ब्रह्मांड में भी। उस पूर्ण का प्रत्येक अंश पूर्ण है और फिर भी वह पूर्ण ही है। वैदिकों ने ईश्वर
को निश्चय ही अनेक रूपों में देखा और समझा , किन्तु उनकी यह अनेकता भी अज्ञानमूलक नहीं कही जा सकती। कार्य-भेद से एक ही व्यक्ति अपने ही घर में पिता , पति , श्वशुर , पितामह , स्वामी सब कुछ है, किन्तु न तो वह व्यक्तिश: अलग मानकर अनेक थालों में भोजन करता है और न एक साथ दस - बीस खाटों पर ही सोता है , वह मरता भी एक बार ही है। अत: ईश्वर सत्ता रूप में एक ही है।
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