सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

अभ्यास एवं है निरन्तरता

अभ्यास एवं है निरन्तरता आवश्यक 




एकाग्रता का अर्थ है की मन मात्र एक वस्तु का ही ध्यान करे । इस में केवल लक्ष्य ही दिखाई दे । यदि मन में अन्य कोई प्रवेश कर गया तो आप स्वयं नहीं रह पाएंगे । ध्यान करते समय बोधपूर्ण दशा बनी रहनी चाहिए । 

आप जैसे -जैसे ध्यान करते जायेंगे वैसे -वैसे मन के विकार दूर होते जायेंगे। काम,क्रोध लोभ ,मोह ,अहंकार ,ईर्ष्या .द्वेष ,घृणा आदि जन्मजात विकार हैं । प्राय: ध्यान के नाम पर बैठे तो रहते हैं ,पर मन एकाग्र नहीं रह पाता । मन की एकाग्रता के लिए श्वांस पर ध्यान लगाना चाहिए।

 श्वांस पर ध्यान लगाने से मन धीरे-धीरे वश में होने लगता है , श्वांस की गति यथाभूत होनी चाहिए । जैसा श्वांस आ रहा है ,वैसा ही आने दे ;उसमें कोई परिवर्तन न करें । यही श्वांस की यथाभूत स्थिति है। श्वांस की स्थिति यथाकृत ,यथाकल्पित ,यथेछित अथवा यथा-संकल्पित नहीं होनी चाहिए। श्वांस की यथाभूत स्थिति ही एकाग्रता का आधार बन सकती है।

 एकाग्रता चित्त में स्थिरता उत्पन्न करती है। इस एकाग्रता के माध्यम से मन निर्विकार ही नहीं , अपितु निर्मल होने लगता है। चित्त की निर्मलता ही प्रमुख ध्येय होना चाहिए। मन शांत होने लगता है। मन के शांत होने से इन्द्रियां स्वयं शांत हो जाएँगी। साथ में बुद्धि में भी परिवर्तन होना प्रारंभ हो जायेगा। अत: एकाग्रता के द्वारा मन, चित्त,बुद्धि आदि सभी सम्यक स्थिति में पहुंच जायेंगे। अभ्यास एवं हैनिरन्तरता आवश्यक  ।******


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